Monday 21 November 2016

Saturday 19 November 2016

पश्चाताप ( किशोर कहानी) द्वारा अनिल कुमार गुप्ता पुस्तकालय अध्यक्ष केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

पश्चाताप

( किशोर कहानी)

द्वारा

अनिल कुमार गुप्ता
पुस्तकालय अध्यक्ष
केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

निर्धन परिवार में जन्मा सौरभ बचपन से ही बहुत संस्कारी था | पिता रोज़ मजदूरी करने जाते और परिवार के पालन  - पोषण का प्रयास करते थे | सौरभ की माँ , पड़ोस के बड़े लोगों के घर जाकर साफ़  - सफाई और बर्तन मांजने का काम करती थी | किसी तरह से परिवार का खर्च चल रहा था |

                     सौरभ और उसकी बहन इस बात को भली – भांति जानते थे कि उनके माता  - पिता किस तरह से मेहनत कर उनकी पढ़ाई पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं | सौरभ के माता  - पिता ने बच्चों की पढ़ाई जारी रखने और जीवन में अनुशासन में रहने को हमेशा प्रेरित किया | बच्चे भी अपने माता  - पिता की बात को ध्यान से सुनते थे और उनकी बातों पर अमल करते थे | घर में सुख  - संसाधनों की कमी से बच्चे परिचित थे | और जानते थे कि आगे चलकर वे अपने माता – पिता के सपनों को अवश्य पूरा करेंगे |

                     सौरभ अब नवमी कक्षा में पहुँच गया था और बहन कक्षा सातवी में | चूंकि गाँव का स्कूल कक्षा आठवीं तक था इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए अब सौरभ को गाँव से दूर तहसील के स्कूल जाना पड़ता था | सरकारी साइकिल ने उसकी इस काम में मदद की | तहसील के बच्चे गाँव के बच्चों से कुछ आगे ही थे | न कि पढ़ाई में अपितु शरारत में | कक्षा का वातावरण गाँव के स्कूल से पूरी तरह से भिन्न था | बच्चे पढाई से ज्यादा खेलकूद और शरारतों में रूचि लेते थे | यह बात सौरभ को खटकती थी | सौरभ की पढ़ाई पर इन बातों का असर होने लगा |

                                  इसी बीच कक्षा के ही मनोज से सौरभ की दोस्ती हो गयी | सौरभ, मनोज को एक अच्छा लड़का समझता था | दोनों साथ पढ़ते और समय बिताते थे | मनोज की उसकी कक्षा के दूसरे लड़के सपन से गहरी मित्रता थी | किन्तु सौरभ को सपन के बारे में ज्यादा पता नहीं था | एक दिन सपन ने मनोज और सौरभ को पिक्चर देखने को कहा | पर मनोज और सौरभ ने पढ़ाई छोड़ स्कूल से पिक्चर देखने जाने से मना किया | और कहा कि एक दिन की पढ़ाई का नुक्सान होगा | और साथ ही यह बात घर वालों को पता चलेगी तो क्या होगा  और न ही हमारे पास पैसे हैं | किन्तु सपन ने उन्हें विश्वास दिलाया कि एक दिन की पढ़ाई छोड़ने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता और हमारे अलावा कोई नहीं जानता कि हम पिक्चर देखने जा रहे हैं फिर घर वालों को तो जानकारी होने का सवाल ही नहीं | और पैसों कि चिंता तुम मत करो आज मैं खर्च कर लूँगा |

                            स्कूल से पढ़ाई छोड़ पिक्चर देख तीनों दोस्त काफी खुश थे | घर पर किसी को पता भी नहीं हुआ | धीरे  - धीरे उनका हौसला बढ़ने लगा | पैसे भी तो चाहिए थे पिक्चर देखने के लिए | सौरभ घर के संदूक से आये दिन थोड़े – थोड़े पैसे चुराने लगा और पिक्चर देखने का क्रम जारी रहा | एक दिन सौरभ की माँ ने सौरभ के पिता से कहा – मुझे लगता है घर का खर्च बढ़ गया है | महीने की आय पूरी नहीं पड़ रही है | पैसे जल्द खर्च हो जाते हैं | सौरभ के पिता ने सौरभ की माँ से पैसे संभालकर रखने और खर्च करने को कहा | बात आई गयी हो गयी |

                           एक दिन सौरभ की माँ ने सौरभ के पिता से सौरभ की पढ़ाई की जानकारी लेने के स्कूल जाने को कहा | सौरभ के पिता स्कूल गए और पाया कि सौरभ आज स्कूल आया ही नहीं | पता चला कि सपन और मनोज भी स्कूल नहीं आये | और यह भी पता चला कि वहा आये दिन स्कूल से गायब रहता है | किसी बच्चे ने बताया कि मैंने एक दिन उन्हें स्कूल से पढ़ाई छोड़कर पिक्चर देखने की बात सुनी थी | फिर क्या था सौरभ के पिता सच जानने के लिए पिक्चर हॉल गए और पिक्चर हॉल में पीछे बैठकर बच्चों को पिक्चर देखते देख लिया किन्तु पिक्चर हॉल में उनसे कुछ नहीं कहा और न ही यह बात उन्होंने सौरभ की माँ से बताई |

                                   एक दिन सुबह  - सुबह अचानक सौरभ के पिता ने सौरभ को संदूक से पैसे निकालते देख लिया फिर क्या था सौरभ को “काटो तो खून नहीं “ वाली स्थिति में देख सौरभ के पिता ने उससे पैसे निकालने का कारण पूछा तो सौरभ ने फीस भरने का बहाना बना दिया | उसी दिन सौरभ के पिता स्कूल गए तो पता चला कि सौरभ व उसके दोस्त सपन और मनोज भी स्कूल नहीं आये | सौरभ के पिता ने सोचा कि तीनों को रंगे हाथों पकड़ा जाए | तीनों पिक्चर हॉल में आगे वाली सीट पर बैठकर पिक्चर देख रहे थे | सौरभ को पता ही नहीं था उसके पिता स्कूल गए थे | शाम को सौरभ के पिता ने सौरभ से अचानक प्रश्न किया कि बेटा आज की पिक्चर कैसी लगी ? सौरभ के पैरों तले ज़मीं खिसक गयी | वह अपने पिता के पैरों पर गिरकर माफ़ी मांगने लगा | उसके पिता ने उसे बताया कि वह उसे पहले भी पिक्चर हॉल में पिक्चर देखते हुए देख चुके हैं | और घर के संदूक से बार – बार पैसों का काम होना इस बात का संकेत था कि सौरभ किसी गलत रास्ते पर चला गया है | सौरभ ने अपने माता  - पिता से अपनी गलती के लिए माफ़ी मांगी और भविष्य में ऐसा न करने की शपथ ली | उसके पश्चाताप के आंसू बता रहे थे कि वह अपनी गलती पर शर्मिन्दा था |

              उसे अपनी भूल का आभास हो चुका था | अब उसने सपन और मनोज का साथ छोड़ दिया और पढ़ाई में खूब मन लगाया | वह पूरे जिले प्रथम स्थान आया और अपने माता – पिता का नाम रोशन किया |

                     बच्चों से गुजारिश है कि किसी भी बच्चे के गलत काम में उसका साथ न दें और यदि कोई परेशानी आती है तो अपने माता – पिता को इस बारे में अवश्य बताएं |



Wednesday 16 November 2016

FRONT COVER OF BOOK DRAWING - CLASS - VIII & VII


BY ISHA 


BY PALVI 




BY JASKARAN SINGH


BY RAMAN


BY POOJA 


BY KASHISH - VII


BY ARSHDEEP - VII



Saturday 5 November 2016

क्या सपनों की भी कोई सीमा हो ? या फिर सपने कुछ ऐसे हों ?

क्या सपनों की भी कोई सीमा हो ? या फिर सपने कुछ ऐसे हों ?

द्वारा

अनिल कुमार गुप्ता
पुस्तकालय अध्यक्ष
केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का

विषय बहुत ही गहन है | इस विषय पर सरलता से कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता | बड़े   - बड़े  विषय विशेषज्ञ बच्चों को बड़े  -बड़े सपने देखने को प्रेरित करते हैं | सपने और वो भी बड़े देखना कोई गलत बात नहीं किन्तु उन सपनों को हासिल करने का मार्ग क्या हो ? इस बात की ओर कोई गौर नहीं करता |  इस बात का अवश्य ही आपके सपने पर असर पड़ सकता है | आपके चरित्र पर भी इसका अनुकूल या फिर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है | हम जानते हैं कि सपनों के लिए हैसियत मायने नहीं रखती | एक चलचित्र अदाकारा कहती हैं “ जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ खोने को हमेशा तैयार रहना चाहिए “ अर्थात ऊपर उठने के लिए गिरना जरूरी है | किन्तु यह गिरना यदि आपके चरित्र को प्रभावित करे तो ऐसा सपना देखना बेमानी है और खुद से धोखा करना है |

                        बड़े सपनों के लिए सही मार्ग का चयन अतिआवश्यक है | बड़े सपनों तक पहुंचना , उन्हें हासिल करना हर एक के बस की बात नहीं है | इसलिए हो सके तो अपनी चादर के अनुसार पैर पसारा जाए तो अच्छा है | मैं आपको हतोत्साहित नहीं करना चाहता किन्तु यह कहना चाहता हूँ कि सपनों की भी सीमा होनी चाहिए | और इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि जीवन की चारित्रिक विशेषता को जीवंत बनाये रखने का यही एकमात्र सरल व सुगम उपाय है |

                  दूसरों  को बिना हानि पहुंचाए , दूसरों को बिना रौंदे , किसी दूसरे को बिना कष्ट दिए , जो स्वप्न साकार किये जा सकते हैं उन्हें अवश्य देखना चाहिए | अक्सर देखा गया है कि सपने तो बड़े देख लिए जाते हैं किन्तु उन्हें हासिल करने के लिए जिस मार्ग का चयन किया जाता है वह मनुष्य की सामाजिक एवं चारित्रिक छवि को पूरी तरह से निगल जाता है | मनुष्य के सपने चूर  - चूर हो जाते हैं | वह स्वयं को संभाल नहीं पाता | आज परिस्थितियाँ पूरी तरह से परिवर्तित हो गयी हैं | आज स्वयं को स्थापित करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है | ऐसे में बड़े  - बड़े सपनों को हासिल करने के लिए छोटे  - छोटे सपनों से होकर गुजरना होता है | धीरे  - धीरे सीढियां चढ़कर खुद को संयमित रखते हुए ही उत्कर्ष की राह पर अग्रसर हुआ जा सकता है |

                  आज की युवा पीढ़ी की सबसे बड़ी समस्या है-  कम समय में कम प्रयासों से मंजिल प्राप्त करना,  फिर चाहे इसके लिए कोई भी मार्ग क्यों न अपना लिया जाये | मानव की सबसे बड़ी पूँजी उसका अपना चरित्र है और सामजिक प्रतिष्ठा जो उसे राष्ट्र की धरोहर साबित करता है , को अपने सपनों की पूर्ति के समय इन मानदंडों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए | जीवन में संयम और शान्ति से बड़ी कोई प्रतिभूति नहीं है | संपत्ति नहीं है |  जो मानव को उनके चरम सुख की अनुभूति करा सके | ये विलासितापूर्ण जीवन, ये भौतिक सुख आपके जीवन में आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति में बाधा साबित हो सकते हैं | अतः अपने सपनों में आध्यात्मिकता की सुगंधि का फ्लेवर जरूर छिड़क कर देखें | जीवन का उद्देश्य , जीवन के सत्य को समझना , जीवन के अंत के चरम सुख को प्राप्त करना है | यही जीवन का सबसे बड़ा सपना होना चाहिए , न कि भौतिक जगत के समंदर में अपने जीवन की आहुति डाली जाए | स्वयं को जीवन बनाये रखना , समाज व धर्म के कल्याण हित कार्य करना, स्वयं को समाज व राष्ट्र की धरोहर साबित करना ही जीवन का प्रमुख सपना व उद्देश्य या कह सकते हैं मंजिल होनी चाहिए |

                              स्वयं को दूसरों के लिए आदर्श रूप में स्थापित कर सकें | दूसरों को दिशा दे सकें | दूसरों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा  के स्रोत के रूप में स्वयं को स्थापित कर सकें | एक ऐसा व्यक्तित्व हो सकें जो सदियों हमारी उपस्थिति का आभास करा सके | इस दिशा में माता  - पिता महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं | वे बचपन से ही ऐसे संस्कारों के बीज बच्चों में बोयें जो कि बच्चों को भौतिक सुख की बजाय आध्यात्मिक सुख प्राप्ति की ओर मुखरित कर सके | जीवन का लक्ष्य स्वयं का उद्धार होना चाहिए न कि भौतिक जगत का विस्तार |

                              स्वयं को बंधन में बांधें , संयम का पालन करें | आवश्यकताएं , अभिलाषाएं विशेष तौर पर भौतिक जगत के प्रति कुछ कम की रखें | स्वयं को आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर ले जाएँ | आध्यात्मिक विकास के मार्ग के सपनों की कोई सीमा नहीं होती | और न ही यह पतन का कारण बनता है | दूसरी ओर भौतिक लालसाओं के सागर में डूबने से मानव अपने पतन और अपने अंत को प्राप्त होता है | अतः आप आध्यात्मिक अभिनन्दन मार्ग की ओर प्रस्थित हों यही मेरी शुभ कामना है |