देवी
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बूढ़ों में जो एक तरह की बच्चों की-सी
बेशर्मी आ जाती है वह इस वक्त भी तुलिया में न आई थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चांदी हो गये
थे। और गाल लटक कर दाढ़ों के नीचे आ गये थे। वह खुद भी निश्चित रूप से अपनी उम्र न
बता सकती थी, लेकिन
लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक चलती तो अंचल
से सिर दांककर, आंखें
नीची किये हुए, मानो
नवेली बहू है। थी तो चमारिन, पर क्या मजाल कि किसी घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाया। गांव में ऊंची जातों
के बहुत-से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गांव उसकी इज्जत करता था
और गृहिणियां तो उसे श्रद्धा की आंखों से देखती थीं। उसे आग्रह के साथ अपने घर
बुलातीं, उसके
सिर में तेल डालतीं, मांग
में सेंदूर भरती, कोई
अच्छी चीज पकाई होती, जैसे
हलवा या खीर या पकौड़ियां, तो उसे खिलाना चाहतीं, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कहीं प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे
कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गांव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेंट हो गये थे
और अब थोड़े-से खंडहर मानो उनकी याद में नंगे सिर खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल
तुलिया की मंड़ैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुंच चुकी थी, जहा आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों
से मुक्त हो जाता हैं और अब श्रेष्ठ प्राणियों को भी उससे उसकी जात के कारण कोई
भेद न था, सभी
उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यों किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज्जत में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हां, केवल एक बार!
तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पांच साल की
थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह कमाने पूरब चला गया।
सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने में दस-बारह
साल की देर है। इतने दिनों में क्यों न कुछ धन कमा लूं और फिर निश्चिन्त होकर
खेती-बारी करूं। लेकिन तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गई, वह
लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के
लिए एक पता लिखा हुआ लिफाफा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। खत में वह बराबर
अपनी विवशता, पराधीनता
और दुर्भाग्य का रोना रोता था—क्या
करूं तूला, मन
में तो बड़ी अभिलाषा है कि अपनी मंड़ैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से
रहता, पर सब कूछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नहीं। जब भगवान लावेंगे तब
आऊंगा। तुम धीरज रखना, मेरे
जीते जी तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बांह पकड़ी है तो मरते दम तक निबाह
करूंगा। जब आंखें बन्द हो जाएंगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्राय:
सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हां, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला
होती थी, उसकी
जगह अब निराशा की राख ही रह गई थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत
भी कभी न फाड़ा था—ऐसे
शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं—उनका
एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गई थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही
सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी
पेटारी में लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भांति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पांव जमीन पर न
पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार
रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गांव की
बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा
की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का
कोई दूसरा रूप उसने कहां देखा था?
रमणियां हंसी से पूछती—क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है—तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुरिंयों से भरे हुए
मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आंखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती—याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आंखें के समाने हैं बड़ी-बड़ी आंखें, लाल-लाल ऊंचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहां कोई पट्ठा ही नहीं है।
मोतियों के-से दांत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने
उनसे कहा, मेरे
लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूंगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात
सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले—मैं तुझे गहनों से लाद दूंगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूं, वहां से रुपये भेजूंगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहां से आऊंगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने
लाऊंगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मां-बाप की ऐसी हैसियत कहां थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलातें उन्हीं
के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने
लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट बिछाऊंगी, तुम्हारी धेती छांटूगी। वहां उन्हीं के
उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में
बोले—और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गई और उनके ऊपर एक कंकड़ फेककर बोली—मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूं, हां!
और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से
जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूंघट
निकालकर भाव बताकर, मुंह
फेरकर हंसती हुई, मानो
उसके जीवन में दुख जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का
वर्णन करती, अपने
अन्तस्तल के इस प्रकाश को देर्शाती जो सौ बरसों से उसके जीवन-पथ को कांटों और
गढ़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त अभिलाषा था, जिसे जीवन-सत्यों ने जरा भी धूमिल न कर पाया था।
2
वह दिन भी थे, जब तुलिया जवान थी, सुंदर थी और पतंगों को उसके रूप-दीपक पर
मंछराने का नशा सवार था। उनके अनुराग और उन्माद तथा समर्पण की कथाएं जब वह कांपते
हुए स्वरों और सजल नेत्रों से कहती तो शायद उन शहींदों की आत्माएं स्वर्ग में
आनन्द से नाच उठती होंगी, क्योंकि जीते जी उन्हें जो कुछ न मिला वही अब तुलिया उन पर दानों हाथों से
निछावर कर रही थी। उसकी उठती हुई जवानी थी। जिधर से निकल जाती युवक समाज कलेजे पर
हाथ रखकर रह जाता। तब बंसीसिंह नाम का एक ठाकुर था, बड़ा छैला, बड़ा
रसिया, गांव का सबसे मनचला जवान, जिसकी तान रात के सन्नाटे में कोस-भर से
सुनायी पड़ती थी। दिन में सैकड़ों बार तुलिया के घर के चक्कर लगाता। तालाब के
किनारे, खेत में, खलिहान में, कुंए
पर, जहां वह जाती, परछाईं की तरह उसके पीछे लगा रहता। कभी
दूध लेकर उसके घर आता, कभी
घी लेकर। कहता, तुलिया, मैं तुझसे कुछ नहीं चाहता, बस जो कुछ मैं तुझे भेंट किया करूं, वह ले लिया कर। तू मुझसे नहीं बोलना
चाहती मत बोल, मेरा
मुंह नहीं देखना चाहती, मत देख लेकिन मेरे चढ़ावों को ठुकरा मत। बस, मैं इसी से सन्तुष्ठ हो जाऊंगा। तुलिया ऐसी भोली न थी, जानती थी यह उंगली पकड़ने की बातें हैं, लेकिन न जाने कैसे वह एक दिन उसके धोखे
में आ गयी—नहीं, धोखे में नहीं आयी—उसकी जवानी पर उसे दया आ गयी। एक दिन वह
पके हुए कलमी आमों की एक टोकरी लाया! तुलिया ने कभी कलमी आम न खाये थे। टोकरी उससे
ले ली। फिर तो आये दिन आम की डलियां आने लगीं। एक दिन जब तुलिया टोकरी लेकर घर में
जाने लगी तो बंसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रख लिया और चट उसके
पैरों पर गिर पड़ा। फिर बोला—तुलिया, अगार अब भी तुझे मुझ पर दया नहीं आती तो
आज मुझे मार डाल। तेरे हाथों से मर जाऊं, बस यही साध है।
तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पांव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर
रोषभरी आंखों से ताकती हुई बोली—अच्छा
ठाकुर, अब यहां से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहूंगी। तुम्हारे
आमों में आग लगे, और
तुमको क्या कहूं! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं
यहां उसके साथ कपट करूं! वह मर्द है, चार पेसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियां जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहां बेठी देखती हूं, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है।
इसीलिए कि मैं यहां दूसरों से विहार करूं? जब तक मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम
से भी। जब उससेमेरा ब्याह हुआ तब मैं पांच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ
कौन-सा सुख उठाया? बांह
पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत
होकर उसके साथ दगा करूं!
यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की
पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आंखों का तार बंधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था
कि भूमि में धंसा जा रहा है।
एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा—मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया।
मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी
का उद्वार का यही एक मार्ग है।
तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि
यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली—मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है।
मैं किसी को क्यों मारूं?
ठाकुर ने हताश आंखों से देखा।
“तो यही तेरा हुक्म है?”
‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।’
ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में
तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पांव फिसल गया होगा। महीनों तक गांव में
इसकी चर्चा रही, पर
तुलिया ने जबान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।
बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर
कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिरं अनाथ विधवा एक दिन
जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके
हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे
पांव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आंसु पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में
था।
तुलिया ने पूछा—इतनी रात गये कहां जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात
क्या है, तुम
तो रो रही हो।
ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहां। तुलिया की
ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आंसू भरे हुए थे और इस समय न
जाने क्यों और उमड़ आये थे।
तुलिया सामने आकर बोली—जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।
ठकुराइन खड़ी हो गयी और आंसू-भरी आंखों
से क्रोध में भरकर बोली—तू
क्या करेगी पूछकर? तुझसे
मतलब?
‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गांव में नहीं रहती? गांव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ
न देंगे तो कौन देगा?’
‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है
तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और
तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूं? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहां मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि
यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूं उढ़री हूं, ब्याहता हूं, दस गांव के बीच में ब्याह के आयी हूं।
अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूंगी ओर अपना राधा लेकर रहूंगी।’
‘तेरे भैया’, ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे
कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया ओर उसका हाथ पकड़कर बोली—तो बहिन, मेरे घर में चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे लायक नहीं है, लेकिन घर में और कुछ नहीं शान्ति तो है
और मैं कितनी ही नीच हूं, तुम्हारी बहिन तो हूं।
ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय-भरी
आंखें जमा दीं।
‘ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा
भी दुश्मन हो जाय।’
‘मैं दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले में अकेली न रहती।’
‘लेकिन मैं तो नहीं चाहती कि मेरे कारन
तुझ पर आफत आवे।’
‘तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।’
ठकुराइन को ढाढ़स बंधा। सकुचाती हुई तुलिया के
साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के की स्वामिनी थी, आज इस झोपड़ी में पड़ी हुई है।
घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती।
तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकड़ा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जुठे बरतन
मांजना, कपड़े छांटना, उसके बच्चे को खिलाना ये सारे काम वह
इतने उमंग से करती, मानो
देवी की उपासना कर रही हो। ठकुराइन इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्विणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन।
इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोब जमाती थी मानो वह उसकी
लौंडी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही
थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पड़ता।
एक दिन ठकुराइन ने कहा—तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊंगी। इस तरह तो यहां जिन्दगी-भर तुम्हारी
रोटीयां तोड़ती रहूंगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी जाल कहां कि उसकी भावज कहां चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा
कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कांटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं
गयी, कहीं और पड़ी हूं, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब
सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।
तुलिया ने पूछा—कहां जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहां जाओगी?
‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी
खोजूंगी।’
तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर
ताकने लगी।
ठकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा—तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी!
साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम
जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू
से बच सके, चाहे
वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियां तोडूं और वह
शोहदा मूंछों पर ताव देकर राज करे।
तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के
हृदय पर किनी गहरी चोट हैं इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल
रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से
भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आंखों के समाने आ खड़ी
हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी
फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, ओर उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की
रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को
किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे
सूरमा की कुली-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मार्यादा को लुटने देगी और
कुछ न करेगी? नहीं-नहीं!
अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को
अपने धर्म से बचायेगी।
उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा—अभी तुम कहीं मत जाओ बहिन पहले मुझे
अपनी शक्ति आजमा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हंसेगा। तुम्हारी आबरू के
पीछे तो एक कुल की आबरू है।
ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली—तू यह कला क्या जाने तुलिया?
‘कौन-सी कला?’
‘यही मर्दों को उल्लू बनाने की।’
‘मैं नारी हूं?’
‘लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नहीं जानती?’
‘यह तो हम-तुम दोनों मां के पेट से सीखकर
आयी हैं।’
‘कुछ बता तो क्या करेगी?’
‘वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने
के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मैं तुम्हारे देवर पर ज़ाला फेंकूगी।’
‘बड़ा घाघ है तुलिया।’
‘यही तो देखना है।’
3
तुलिया ने बाकी रात कार्यक्रम और उसका
विधान सोचने में काटी। कुशल सुनापति की भांति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी
मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शुत्रु निश्शंक था, इस धावे की उसे जरा भी खबर न थी।
बंसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छ: फीट का
मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा—ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।
दोपहर हो गया था। मजदूर खेतों में लौटकर आ चुके
थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके
माथे से पसीने की धार बह रही थी।
ठाकुन ने चौंककर तुलिया की ओर देखां उसी
वक्त तुलिया का अंचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पड़ी। उसने झट अंचल सम्हाल
लिया, पर उतावली में जूड़े में गुंथी हुई
फूलों की बेनी बिजली की तरह आंखें में कौंद गयी। गिरधर का मन चंचली हो उठा। आंखों
में हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुर्खी और हल्की-सी मुस्कराहट।
नस-नस में संगीत-सा गूंज उठा।
उसने तुलिया को हजारों बार देखा था, प्यासी आंखों, ललचायी आंखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड
में उसकी तरह कभी आंखें तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के
सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़ने वाले पंछी पर उसके जाल और दाने का
क्या असर हो सकता था? मगर
आज वह पंछी सामने वाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह
क्यों न दाना और जाल लेकर दौड़े।
उसने मस्त होकर कहा—मैं पहुंचाये देता हूं तुलिया, तू क्यों सिर पर उठायेगी।
‘और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को
क्या हो गया है?’
‘मुझे कुत्तों के भूंकने की परवा नहीं
है।’
‘लेकिन मुझे तो है।’
ठाकुर ने न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस
तरह आकाश में पांव रखता चला मानो तीनों लोक का खजाना लूटे लिये जाता है।
4
एक महिना गुजर गया। तुलिया ने ठाकुर पर
मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईसान और धर्म
और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे
उनती ही दूर थी जितनी पहले।
एक दिन वह तुलिया से बोला—इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।
तुलिया ने फंदे को और कसा—हां, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूं। दीन से भी जाऊं, दुनिया से भी!
ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा—अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहीं आता?
‘भौंरे फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं।’
‘और पतंगे जलकर राख नहीं हो जाते?’
‘पतियाऊं कैसे?’
‘मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?’
‘तुम
समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा।
मैं ऐसी भोली नहीं हूं।’
तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भांप ली थी।
ठाकुर हैरत में आकर उसका मुंह ताकने लगा।
तुलिया ने फिर कहा—आदमी अपना घर छोड़ता है तो पहले कहीं
बैठने का ठिकाना कर लेता है।
ठाकुर प्रसन्न होकर बोला—तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह।
मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।
तुलिया आंखें मटकाकर बोली—आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न
रहने पाऊं, क्यों?
‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो
तेरा गुलाम हूं।’
‘बचन देते हो?’
‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार
बार।’
‘फिर तो न जाओगे?’
‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’
‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख
दो।’
ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने
को तैयार था, लेकिन
आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर
नाराज हो जाय, तो
उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि
तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार
की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही
अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।
उसने माथे पर बल लाकर कहा—मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदा से प्रेम है
तुलिया, मुझसे नहीं!
तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया—तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे
रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?
‘तू प्रेम को बाजार का सौदा समझती है?’
‘हां, समझती हूं। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चांदनी होगी, मेरे लिए तो अंधेरा पाख हो जायगा। मैं
जब अपना सब कुछ तुम्हें दे रही हूं तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूं।
तुम्हें अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मैं
जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊंगी? लेकिन तुम्हारी नीयत मालू हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय
आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नहीं जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे
सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।’
तुलिया झल्लायी हुई वहां से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिल। जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए
विधान का एक अंग था। इसके आगे क्या होने वाला है इसके बारे में भी उसे कोई सन्देह
न था।
5
ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मंहगे दामो। उसके दिल का
इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आंखों के
समाने थी, तुलिया
दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज समाने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण
चलाती थी, तब
वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज्यादा
मादक है, विदरक
है।
कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भांति विलीन भी हो
जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके
साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने
के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद
क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम
लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊं तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं
उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूं तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफाई करूंगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूं। कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो
उससे कह देता—तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख
हूं, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ
उसके लिए नादिम हूं। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुंह से वह शब्द निकलवाये।
यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि
दुनिया में वही चीज सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर
दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ
होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं।
और उस वक्त मैं इतनी मोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!
6
एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम
भेजा—मैं बीमार हूं, आकर देख जाव, कौन जाने बचूं कि न बचूं।
इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई
बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाए, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा।
रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा
जाता था, तुलिया
बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूं।
दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके
प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई—तुलिया
बीमार है!
उसकी तुलिया ने उसे बुलाया है। उस कृतघ्नी, अधम, नीच, हत्यारे
को बुलाया है कि आकर मुझे देख जाओ, कौन जाने बचूं कि न बचूं। तू अगर न बचेगी तुलिया तो मैं भी न बचूंगा, हाय, न बचूंगा!! दीवार से सिर फोड़कर मर जाऊंगा। फिर मेरी और तेरी चिता एक साथ
बनेगी, दोनों के जनाजे एक साथ निकलेंगे।
उसने कदम और तेज किए। आज वह अपना सब कुछ तुलिया
के कदमों पर रख देगा। तुलिया उसे बेवफा समझती है। आज वह दिखाएगा, वफा किसे कहते हैं। जीवन में अगर उसने
वफा न की तो मरने के बाद करेगा। इस चार दिन की जिन्दगी में जो कुछ न कर सका वह
अनन्त युगों तक करता रहेगा। उसका प्रेम कहानी बनकर घर-घर फैल जाएगा।
मन में शंका हुई, तुम अपने प्राणों का मोह छोड़ सकोगे? उसने जोर से छाती पीटी ओर चिल्ला उठा—प्राणों का मोह किसके लिए? और प्राण भी तो वही है, जो बीमार है। देखूं मौत कैसे प्राण ले जाती है, और देह को छोड़ देती है।
उसने धड़कते हुए दिल और थरथराते हुए पांवों से
तुलिया के घर में कदम रक्खा। तुलिया अपनी खाट पर एक चादर ओढ़े सिमटी पड़ी थी, और लालटेन के अन्धे प्रकाश में उसका
पीला मुख मानो मौत की गोद में विश्राम कर रहा था।
उसने उसके चरणों पर सिर रख दिया और आंसुओं में
डूबी हुई आवाज से बोला—तूला, यह अभाग तुम्हारे चरणों पर पड़ा हुआ है।
क्या आंखें न खोलेगी?
तुलिया ने आंखें खोल दीं और उसकी ओर करुण दृष्टि
डालकर कराहती हुई बोली—तुम
हो गिरधर सिंह, तुम
आ गए? अब मैं आराम से मरूंगी। तुम्हें एक बार
देखने के लिए जी बहुत बेचैन था। मेरा कहा-सुना माफ कर देना और मेरे लिए रोना मत।
इस मिट्टी की देह में क्या रक्खा है गिरधर! वह तो मिट्टी में मिल जाएगी। लेकिन मैं
कभी तुम्हारा साथ न छोडूंगी। परछाईं की तरह नित्य तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम मुझे
देख न सकोगे, मेरी
बातें सुन न सकोगे, लेकिन
तुलिया आठों पहर सोते-जागते तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे लिए अपने को बदनाम मत करना
गिरधर! कभी किसी के सामने मेरा नाम जबान पर न लाना। हां, एक बार मेरी चिता पर पानी के छींटे मार
देना। इससे मेरे हृदय की ज्वाला शान्त हो जायगी।
गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में
कटार होती तो इस वक्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।
जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा—मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूं, मानोगी?
गिरधर ने छाती ठोककर कहा—मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी
तुलिया। अब जीकर क्या करूंगा और जिऊं भी तो कैसे? तू मेरा प्राण हे तुलिया।
उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्कराई।
‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे
हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे
सच्चा प्रेम है, तो
ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने
के पीछे बदनाम मत करना।
गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।
‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’
‘अब तो जिऊंगी ही इसीलिए कि तेरा हुक्म
पूरा करूं, यही
मेरे जीवन का ध्येय होगा।’
‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी
मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे
देना।
‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके
में है, और कह गई है कि अब कभी न आऊंगी।’
‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया
कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊं, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके कागज-पत्तर मेरे पास रख
दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि
बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही
मुझे सता रहे हैं। बस, अभी
जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे
रहे हैं।’
गिरधर ने दबी जबान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूली।
स्टाम्प कहां मिलेगा? लिखेगा
कौन? गवाह कहां हैं?
‘कल सांझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो
मेरी जान बच जाएगी, गिरधर।
मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के
कारन मारी जा रही हूं। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’
‘मैं अभी जाता हूं तुलिया। तेरा हुक्म
सिर और आंखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूं और मन की लालसा मन
में ही रह जाय।’
‘नहीं-नहीं, मैं कल सांझ तक नहीं मरूंगी, विश्वास रक्खो।’
गिरधर उसी छन वहां से निकला और रातों-रात पच्चीस
कोस की मंजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज
के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और
चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया
के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियां, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी
पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो
अनर्थ हो जाएगा।
तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गए गिरधर? काम कर आए?
गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हां तूला, कर आया, मगर
अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हंसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूंट पानी भी पिया हो।
तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर
बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूं। सबेरे तक बिलकुल
अच्छी हो जाऊंगीं तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नींद आ गई थी। मैंने सपना
देखा कि बंसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े हैं और मुझसे कह रहे हैं, तुलिया, तू ब्याहता है, तेरा
आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और
जन्म-भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला
चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मैं तेरी सांसत कर डालूंगा। बस, यह कहकर वह लाल-लाल आंखों से मुझे तरेरते हुए चले गए।
गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ
देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, एकाएक जैसे उसकी आंखों के सामने से
पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ में आ गई। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों
को चूमा और बोला—समझ
गया तुलिया, तू
देवी है।
-‘चांद’, अप्रैल १९३५बूढ़ों में जो एक तरह की
बच्चों की-सी बेशर्मी आ जाती है वह इस वक्त भी तुलिया में न आई थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चांदी हो गये
थे। और गाल लटक कर दाढ़ों के नीचे आ गये थे। वह खुद भी निश्चित रूप से अपनी उम्र न
बता सकती थी, लेकिन
लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक चलती तो अंचल
से सिर दांककर, आंखें
नीची किये हुए, मानो
नवेली बहू है। थी तो चमारिन, पर क्या मजाल कि किसी घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाया। गांव में ऊंची जातों
के बहुत-से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गांव उसकी इज्जत करता था
और गृहिणियां तो उसे श्रद्धा की आंखों से देखती थीं। उसे आग्रह के साथ अपने घर
बुलातीं, उसके
सिर में तेल डालतीं, मांग
में सेंदूर भरती, कोई
अच्छी चीज पकाई होती, जैसे
हलवा या खीर या पकौड़ियां, तो उसे खिलाना चाहतीं, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कहीं प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे
कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गांव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेंट हो गये थे
और अब थोड़े-से खंडहर मानो उनकी याद में नंगे सिर खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल
तुलिया की मंड़ैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुंच चुकी थी, जहा आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों
से मुक्त हो जाता हैं और अब श्रेष्ठ प्राणियों को भी उससे उसकी जात के कारण कोई
भेद न था, सभी
उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यों किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज्जत में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हां, केवल एक बार!
तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पांच साल की
थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह कमाने पूरब चला गया।
सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने में दस-बारह
साल की देर है। इतने दिनों में क्यों न कुछ धन कमा लूं और फिर निश्चिन्त होकर
खेती-बारी करूं। लेकिन तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गई, वह
लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के
लिए एक पता लिखा हुआ लिफाफा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। खत में वह बराबर
अपनी विवशता, पराधीनता
और दुर्भाग्य का रोना रोता था—क्या
करूं तूला, मन
में तो बड़ी अभिलाषा है कि अपनी मंड़ैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से
रहता, पर सब कूछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नहीं। जब भगवान लावेंगे तब
आऊंगा। तुम धीरज रखना, मेरे
जीते जी तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बांह पकड़ी है तो मरते दम तक निबाह
करूंगा। जब आंखें बन्द हो जाएंगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्राय:
सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हां, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला
होती थी, उसकी
जगह अब निराशा की राख ही रह गई थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत
भी कभी न फाड़ा था—ऐसे
शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं—उनका
एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गई थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही
सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी
पेटारी में लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भांति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पांव जमीन पर न
पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार
रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गांव की
बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा
की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का
कोई दूसरा रूप उसने कहां देखा था?
रमणियां हंसी से पूछती—क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है—तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुरिंयों से भरे हुए
मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आंखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती—याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आंखें के समाने हैं बड़ी-बड़ी आंखें, लाल-लाल ऊंचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहां कोई पट्ठा ही नहीं है।
मोतियों के-से दांत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने
उनसे कहा, मेरे
लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूंगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात
सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले—मैं तुझे गहनों से लाद दूंगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूं, वहां से रुपये भेजूंगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहां से आऊंगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने
लाऊंगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मां-बाप की ऐसी हैसियत कहां थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलातें उन्हीं
के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने
लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट बिछाऊंगी, तुम्हारी धेती छांटूगी। वहां उन्हीं के
उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में
बोले—और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गई और उनके ऊपर एक कंकड़ फेककर बोली—मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूं, हां!
और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से
जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूंघट
निकालकर भाव बताकर, मुंह
फेरकर हंसती हुई, मानो
उसके जीवन में दुख जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का
वर्णन करती, अपने
अन्तस्तल के इस प्रकाश को देर्शाती जो सौ बरसों से उसके जीवन-पथ को कांटों और
गढ़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त अभिलाषा था, जिसे जीवन-सत्यों ने जरा भी धूमिल न कर पाया था।
2
वह दिन भी थे, जब तुलिया जवान थी, सुंदर थी और पतंगों को उसके रूप-दीपक पर
मंछराने का नशा सवार था। उनके अनुराग और उन्माद तथा समर्पण की कथाएं जब वह कांपते
हुए स्वरों और सजल नेत्रों से कहती तो शायद उन शहींदों की आत्माएं स्वर्ग में
आनन्द से नाच उठती होंगी, क्योंकि जीते जी उन्हें जो कुछ न मिला वही अब तुलिया उन पर दानों हाथों से
निछावर कर रही थी। उसकी उठती हुई जवानी थी। जिधर से निकल जाती युवक समाज कलेजे पर
हाथ रखकर रह जाता। तब बंसीसिंह नाम का एक ठाकुर था, बड़ा छैला, बड़ा
रसिया, गांव का सबसे मनचला जवान, जिसकी तान रात के सन्नाटे में कोस-भर से
सुनायी पड़ती थी। दिन में सैकड़ों बार तुलिया के घर के चक्कर लगाता। तालाब के
किनारे, खेत में, खलिहान में, कुंए
पर, जहां वह जाती, परछाईं की तरह उसके पीछे लगा रहता। कभी
दूध लेकर उसके घर आता, कभी
घी लेकर। कहता, तुलिया, मैं तुझसे कुछ नहीं चाहता, बस जो कुछ मैं तुझे भेंट किया करूं, वह ले लिया कर। तू मुझसे नहीं बोलना
चाहती मत बोल, मेरा
मुंह नहीं देखना चाहती, मत देख लेकिन मेरे चढ़ावों को ठुकरा मत। बस, मैं इसी से सन्तुष्ठ हो जाऊंगा। तुलिया ऐसी भोली न थी, जानती थी यह उंगली पकड़ने की बातें हैं, लेकिन न जाने कैसे वह एक दिन उसके धोखे
में आ गयी—नहीं, धोखे में नहीं आयी—उसकी जवानी पर उसे दया आ गयी। एक दिन वह
पके हुए कलमी आमों की एक टोकरी लाया! तुलिया ने कभी कलमी आम न खाये थे। टोकरी उससे
ले ली। फिर तो आये दिन आम की डलियां आने लगीं। एक दिन जब तुलिया टोकरी लेकर घर में
जाने लगी तो बंसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रख लिया और चट उसके पैरों
पर गिर पड़ा। फिर बोला—तुलिया, अगार अब भी तुझे मुझ पर दया नहीं आती तो
आज मुझे मार डाल। तेरे हाथों से मर जाऊं, बस यही साध है।
तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पांव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर
रोषभरी आंखों से ताकती हुई बोली—अच्छा
ठाकुर, अब यहां से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहूंगी। तुम्हारे
आमों में आग लगे, और
तुमको क्या कहूं! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं
यहां उसके साथ कपट करूं! वह मर्द है, चार पेसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियां जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहां बेठी देखती हूं, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है।
इसीलिए कि मैं यहां दूसरों से विहार करूं? जब तक मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम
से भी। जब उससेमेरा ब्याह हुआ तब मैं पांच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ
कौन-सा सुख उठाया? बांह
पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत
होकर उसके साथ दगा करूं!
यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की
पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आंखों का तार बंधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था
कि भूमि में धंसा जा रहा है।
एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा—मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया।
मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी
का उद्वार का यही एक मार्ग है।
तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि
यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली—मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है।
मैं किसी को क्यों मारूं?
ठाकुर ने हताश आंखों से देखा।
“तो यही तेरा हुक्म है?”
‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।’
ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में
तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पांव फिसल गया होगा। महीनों तक गांव में
इसकी चर्चा रही, पर
तुलिया ने जबान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।
बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर
कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिरं अनाथ विधवा एक दिन
जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके
हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे
पांव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आंसु पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में
था।
तुलिया ने पूछा—इतनी रात गये कहां जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात
क्या है, तुम
तो रो रही हो।
ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहां। तुलिया की
ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आंसू भरे हुए थे और इस समय न
जाने क्यों और उमड़ आये थे।
तुलिया सामने आकर बोली—जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।
ठकुराइन खड़ी हो गयी और आंसू-भरी आंखों
से क्रोध में भरकर बोली—तू
क्या करेगी पूछकर? तुझसे
मतलब?
‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गांव में नहीं रहती? गांव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ
न देंगे तो कौन देगा?’
‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है
तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और
तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूं? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहां मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि
यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूं उढ़री हूं, ब्याहता हूं, दस गांव के बीच में ब्याह के आयी हूं।
अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूंगी ओर अपना राधा लेकर रहूंगी।’
‘तेरे भैया’, ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे
कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया ओर उसका हाथ पकड़कर बोली—तो बहिन, मेरे घर में चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे लायक नहीं है, लेकिन घर में और कुछ नहीं शान्ति तो है
और मैं कितनी ही नीच हूं, तुम्हारी बहिन तो हूं।
ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय-भरी
आंखें जमा दीं।
‘ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा
भी दुश्मन हो जाय।’
‘मैं दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले में अकेली न रहती।’
‘लेकिन मैं तो नहीं चाहती कि मेरे कारन
तुझ पर आफत आवे।’
‘तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।’
ठकुराइन को ढाढ़स बंधा। सकुचाती हुई तुलिया के
साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के की स्वामिनी थी, आज इस झोपड़ी में पड़ी हुई है।
घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती।
तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकड़ा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जुठे बरतन
मांजना, कपड़े छांटना, उसके बच्चे को खिलाना ये सारे काम वह
इतने उमंग से करती, मानो
देवी की उपासना कर रही हो। ठकुराइन इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्विणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन।
इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोब जमाती थी मानो वह उसकी
लौंडी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही
थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पड़ता।
एक दिन ठकुराइन ने कहा—तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊंगी। इस तरह तो यहां जिन्दगी-भर तुम्हारी
रोटीयां तोड़ती रहूंगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी जाल कहां कि उसकी भावज कहां चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा
कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कांटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं
गयी, कहीं और पड़ी हूं, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब
सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।
तुलिया ने पूछा—कहां जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहां जाओगी?
‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी
खोजूंगी।’
तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर
ताकने लगी।
ठकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा—तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी!
साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम
जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू
से बच सके, चाहे
वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियां तोडूं और वह
शोहदा मूंछों पर ताव देकर राज करे।
तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के
हृदय पर किनी गहरी चोट हैं इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल
रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से
भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आंखों के समाने आ खड़ी
हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी
फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, ओर उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की
रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को
किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे
सूरमा की कुली-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मार्यादा को लुटने देगी और
कुछ न करेगी? नहीं-नहीं!
अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को
अपने धर्म से बचायेगी।
उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा—अभी तुम कहीं मत जाओ बहिन पहले मुझे
अपनी शक्ति आजमा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हंसेगा। तुम्हारी आबरू के
पीछे तो एक कुल की आबरू है।
ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली—तू यह कला क्या जाने तुलिया?
‘कौन-सी कला?’
‘यही मर्दों को उल्लू बनाने की।’
‘मैं नारी हूं?’
‘लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नहीं जानती?’
‘यह तो हम-तुम दोनों मां के पेट से सीखकर
आयी हैं।’
‘कुछ बता तो क्या करेगी?’
‘वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने
के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मैं तुम्हारे देवर पर ज़ाला फेंकूगी।’
‘बड़ा घाघ है तुलिया।’
‘यही तो देखना है।’
3
तुलिया ने बाकी रात कार्यक्रम और उसका
विधान सोचने में काटी। कुशल सुनापति की भांति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी
मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शुत्रु निश्शंक था, इस धावे की उसे जरा भी खबर न थी।
बंसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छ: फीट का
मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा—ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।
दोपहर हो गया था। मजदूर खेतों में लौटकर आ चुके
थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके
माथे से पसीने की धार बह रही थी।
ठाकुन ने चौंककर तुलिया की ओर देखां उसी
वक्त तुलिया का अंचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पड़ी। उसने झट अंचल सम्हाल
लिया, पर उतावली में जूड़े में गुंथी हुई
फूलों की बेनी बिजली की तरह आंखें में कौंद गयी। गिरधर का मन चंचली हो उठा। आंखों
में हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुर्खी और हल्की-सी मुस्कराहट।
नस-नस में संगीत-सा गूंज उठा।
उसने तुलिया को हजारों बार देखा था, प्यासी आंखों, ललचायी आंखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड
में उसकी तरह कभी आंखें तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के
सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़ने वाले पंछी पर उसके जाल और दाने का
क्या असर हो सकता था? मगर
आज वह पंछी सामने वाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह
क्यों न दाना और जाल लेकर दौड़े।
उसने मस्त होकर कहा—मैं पहुंचाये देता हूं तुलिया, तू क्यों सिर पर उठायेगी।
‘और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को
क्या हो गया है?’
‘मुझे कुत्तों के भूंकने की परवा नहीं
है।’
‘लेकिन मुझे तो है।’
ठाकुर ने न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस
तरह आकाश में पांव रखता चला मानो तीनों लोक का खजाना लूटे लिये जाता है।
4
एक महिना गुजर गया। तुलिया ने ठाकुर पर
मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईसान और धर्म
और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे
उनती ही दूर थी जितनी पहले।
एक दिन वह तुलिया से बोला—इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।
तुलिया ने फंदे को और कसा—हां, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूं। दीन से भी जाऊं, दुनिया से भी!
ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा—अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहीं आता?
‘भौंरे फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं।’
‘और पतंगे जलकर राख नहीं हो जाते?’
‘पतियाऊं कैसे?’
‘मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?’
‘तुम
समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा।
मैं ऐसी भोली नहीं हूं।’
तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भांप ली थी।
ठाकुर हैरत में आकर उसका मुंह ताकने लगा।
तुलिया ने फिर कहा—आदमी अपना घर छोड़ता है तो पहले कहीं
बैठने का ठिकाना कर लेता है।
ठाकुर प्रसन्न होकर बोला—तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह।
मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।
तुलिया आंखें मटकाकर बोली—आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न
रहने पाऊं, क्यों?
‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो
तेरा गुलाम हूं।’
‘बचन देते हो?’
‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार
बार।’
‘फिर तो न जाओगे?’
‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’
‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख
दो।’
ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने
को तैयार था, लेकिन
आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर
नाराज हो जाय, तो
उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि
तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार
की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही
अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।
उसने माथे पर बल लाकर कहा—मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदा से प्रेम है
तुलिया, मुझसे नहीं!
तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया—तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे
रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?
‘तू प्रेम को बाजार का सौदा समझती है?’
‘हां, समझती हूं। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चांदनी होगी, मेरे लिए तो अंधेरा पाख हो जायगा। मैं
जब अपना सब कुछ तुम्हें दे रही हूं तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूं।
तुम्हें अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मैं
जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊंगी? लेकिन तुम्हारी नीयत मालू हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय
आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नहीं जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे
सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।’
तुलिया झल्लायी हुई वहां से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिल। जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए
विधान का एक अंग था। इसके आगे क्या होने वाला है इसके बारे में भी उसे कोई सन्देह
न था।
5
ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मंहगे दामो। उसके दिल का
इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आंखों के
समाने थी, तुलिया
दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज समाने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण
चलाती थी, तब
वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज्यादा
मादक है, विदरक
है।
कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भांति विलीन भी हो
जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके
साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने
के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद
क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम
लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊं तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं
उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूं तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफाई करूंगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूं। कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो
उससे कह देता—तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख
हूं, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ
उसके लिए नादिम हूं। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुंह से वह शब्द निकलवाये।
यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि
दुनिया में वही चीज सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर
दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ
होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं।
और उस वक्त मैं इतनी मोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!
6
एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम
भेजा—मैं बीमार हूं, आकर देख जाव, कौन जाने बचूं कि न बचूं।
इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई
बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाए, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा।
रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा
जाता था, तुलिया
बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूं।
दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके
प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई—तुलिया
बीमार है!
उसकी तुलिया ने उसे बुलाया है। उस कृतघ्नी, अधम, नीच, हत्यारे
को बुलाया है कि आकर मुझे देख जाओ, कौन जाने बचूं कि न बचूं। तू अगर न बचेगी तुलिया तो मैं भी न बचूंगा, हाय, न बचूंगा!! दीवार से सिर फोड़कर मर जाऊंगा। फिर मेरी और तेरी चिता एक साथ
बनेगी, दोनों के जनाजे एक साथ निकलेंगे।
उसने कदम और तेज किए। आज वह अपना सब कुछ तुलिया
के कदमों पर रख देगा। तुलिया उसे बेवफा समझती है। आज वह दिखाएगा, वफा किसे कहते हैं। जीवन में अगर उसने
वफा न की तो मरने के बाद करेगा। इस चार दिन की जिन्दगी में जो कुछ न कर सका वह
अनन्त युगों तक करता रहेगा। उसका प्रेम कहानी बनकर घर-घर फैल जाएगा।
मन में शंका हुई, तुम अपने प्राणों का मोह छोड़ सकोगे? उसने जोर से छाती पीटी ओर चिल्ला उठा—प्राणों का मोह किसके लिए? और प्राण भी तो वही है, जो बीमार है। देखूं मौत कैसे प्राण ले जाती है, और देह को छोड़ देती है।
उसने धड़कते हुए दिल और थरथराते हुए पांवों से
तुलिया के घर में कदम रक्खा। तुलिया अपनी खाट पर एक चादर ओढ़े सिमटी पड़ी थी, और लालटेन के अन्धे प्रकाश में उसका
पीला मुख मानो मौत की गोद में विश्राम कर रहा था।
उसने उसके चरणों पर सिर रख दिया और आंसुओं में
डूबी हुई आवाज से बोला—तूला, यह अभाग तुम्हारे चरणों पर पड़ा हुआ है।
क्या आंखें न खोलेगी?
तुलिया ने आंखें खोल दीं और उसकी ओर करुण दृष्टि
डालकर कराहती हुई बोली—तुम
हो गिरधर सिंह, तुम
आ गए? अब मैं आराम से मरूंगी। तुम्हें एक बार
देखने के लिए जी बहुत बेचैन था। मेरा कहा-सुना माफ कर देना और मेरे लिए रोना मत।
इस मिट्टी की देह में क्या रक्खा है गिरधर! वह तो मिट्टी में मिल जाएगी। लेकिन मैं
कभी तुम्हारा साथ न छोडूंगी। परछाईं की तरह नित्य तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम मुझे
देख न सकोगे, मेरी
बातें सुन न सकोगे, लेकिन
तुलिया आठों पहर सोते-जागते तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे लिए अपने को बदनाम मत करना
गिरधर! कभी किसी के सामने मेरा नाम जबान पर न लाना। हां, एक बार मेरी चिता पर पानी के छींटे मार
देना। इससे मेरे हृदय की ज्वाला शान्त हो जायगी।
गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में
कटार होती तो इस वक्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।
जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा—मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूं, मानोगी?
गिरधर ने छाती ठोककर कहा—मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी
तुलिया। अब जीकर क्या करूंगा और जिऊं भी तो कैसे? तू मेरा प्राण हे तुलिया।
उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्कराई।
‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे
हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे
सच्चा प्रेम है, तो
ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने
के पीछे बदनाम मत करना।
गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।
‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’
‘अब तो जिऊंगी ही इसीलिए कि तेरा हुक्म
पूरा करूं, यही
मेरे जीवन का ध्येय होगा।’
‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी
मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे
देना।
‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके
में है, और कह गई है कि अब कभी न आऊंगी।’
‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया
कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊं, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके कागज-पत्तर मेरे पास रख
दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि
बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही
मुझे सता रहे हैं। बस, अभी
जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे
रहे हैं।’
गिरधर ने दबी जबान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूली।
स्टाम्प कहां मिलेगा? लिखेगा
कौन? गवाह कहां हैं?
‘कल सांझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो
मेरी जान बच जाएगी, गिरधर।
मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के
कारन मारी जा रही हूं। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’
‘मैं अभी जाता हूं तुलिया। तेरा हुक्म
सिर और आंखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूं और मन की लालसा मन
में ही रह जाय।’
‘नहीं-नहीं, मैं कल सांझ तक नहीं मरूंगी, विश्वास रक्खो।’
गिरधर उसी छन वहां से निकला और रातों-रात पच्चीस
कोस की मंजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज
के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और
चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया
के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियां, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी
पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो
अनर्थ हो जाएगा।
तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गए गिरधर? काम कर आए?
गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हां तूला, कर आया, मगर
अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हंसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूंट पानी भी पिया हो।
तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर
बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूं। सबेरे तक बिलकुल
अच्छी हो जाऊंगीं तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नींद आ गई थी। मैंने सपना
देखा कि बंसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े हैं और मुझसे कह रहे हैं, तुलिया, तू ब्याहता है, तेरा
आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और
जन्म-भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला
चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मैं तेरी सांसत कर डालूंगा। बस, यह कहकर वह लाल-लाल आंखों से मुझे तरेरते हुए चले गए।
गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ
देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, एकाएक जैसे उसकी आंखों के सामने से
पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ में आ गई। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों
को चूमा और बोला—समझ
गया तुलिया, तू
देवी है।
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