होली
की छुट्टी
वर्नाक्युलर
फ़ाइनल पास करने के बाद मुझे एक प्राइमरी स्कूल में जगह वमिली, जो मेरे घर से ग्यारह मील पर था।
हमारे हेडमास्टर साहब को छुट्टियों में भी लड़कों को पढ़ाने की सनक थी। रात को
लड़के खाना खाकर स्कूल में आ जाते और हेडमास्टर साहब चारपाई पर लेटकर अपने
खर्राटों से उन्हें पढ़ाया करते। जब लड़कों में धौल-धप्पा शुरु हो जाता और शोर-गुल
मचने लगता तब यकायक वह खरगोश की नींद से चौंक पड़ते और लड़को को दो- चार तकाचे
लगाकर फिर अपने सपनों के मजे लेने लगते।
ग्यायह-बारह बजे रात तक यही ड्रामा होता रहता, यहां तक कि लड़के नींद से
बेक़रार होकर वहीं टाट पर सो जाते। अप्रैल
में सलाना इम्तहान होनेवाला था, इसलिए
जनवरी ही से हाय-तौ बा मची हुई थी। नाइट स्कूलों पर इतनी रियायत थी कि रात की
क्लासों में उन्हें न तलब किया जाता था, मगर
छुट्टियां बिलकुल न मिलती थीं। सोमवती अमावस आयी और निकल गयी, बसन्त आया और चला गया,शिवरात्रि आयी और गुजर गयी। और इतवारों का तो
जिक्र ही क्या है। एक दिन के लिए कौन इतना
बड़ा सफ़र करता, इसलिए कई महीनों से मुझे घर जाने
का मौका न मिला था। मगर अबकी मैंने पक्का
इरादा कर लिया था कि होली परर जरुर घर जाऊंगा, चाहे नौकरी से हाथ ही क्यों न
धोने पड़ें। मैंने एक हफ्ते पहले से ही हेडमास्टर साहब को अल्टीमेटम दे दिया कि २०
मार्च को होली की छुट्टी शुरु होगी और बन्दा १९ की शाम को रुखसत हो जाएगा।
हेडमास्टर साहब ने मुझे समझाया कि अभी लड़के हो, तुम्हें क्या मालूम नौकरी कितनी
मुश्किलों से मिलती है और कितनी मुश्किपलों से निभती है, नौकरी पाना उतना मुश्किल नहीं जितना उसको निभाना। अप्रैल में इम्तहान
होनेवाला है,
तीन-चार
दिन स्कूल बन्द रहा तो बताओ कितने लड़के पास होंगे ? साल-भर की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा कि नहीं ? मेरा कहना मानो, इस
छुट्टी में न जाओ, इम्तसहान
के बाद जो छुट्टी पड़े उसमें चले जाना। ईस्टर
की चार दिन की छुट्टी होगी, मैं
एक दिन के लिए भी न रोकूंगा।
मैं
अपने मोर्चे पर काय़म रहा, समझाने-बुझाने, डराने –धमकाने और जवाब-तलब किये जाने के हथियारों का
मुझ पर असर न हुआ। १९ को ज्यों ही स्कूल
बन्द हुआ, मैंने हेडमास्टर साहब को सलाम भी न किया और चुपके से अपने
डेरे पर चला आया। उन्हें सलाम करने जाता तो वह एक न एक काम निकालकर मुझे रोक लेते- रजिस्टर में फ़ीस की
मीज़ान लगाते जाओ, औसत
हाज़िरी निकालते जाओ, लड़को
की कापियां जमा करके उन पर संशोधन और तारीख सब पूरी कर दो। गोया यह मेरा आखिरी सफ़र है और मुझे जिन्दगी के सारे काम अभी खतम कर
देने चाहिए।
मकान
पर आकर मैंने चटपट अपनी किताबों की पोटली उठायी, अपना हलका लिहाफ़ कंधे पर
रखा और स्टेशन के लिए चल पड़ा। गाड़ी ५
बजकर ५ मिनट पर जाती थी। स्कूल की घड़ी
हाज़िरी के वक्त हमेशा आध घण्टा तेज और छुट्टी के वक्त आधा घण्टा सुस्त रहती थी। चार बजे स्कूल बन्द
हुआ था। मेरे खयाल में स्टेशन पहुँचने के लिए काफी वक्त था। फिर भी मुसाफिरों को
गाड़ी की तरफ से आम तौर पर जो अन्देशा लगा रहता है, और जो घड़ी हाथ में होने परर भी और गाड़ी का वक्त ठीक मालूम
होने पर भी दूर से किसी गाड़ी की
गड़गड़ाहट या सीटी सुनकर कदमों को तेज और
दिल को परेशान कर दिया करता है, वह
मुझे भी लगा हुआ था। किताबों की पोटली भारी थी, उस पर कंध्णे पर लिहाफ़, बार-बार हाथ बदल ता और लपका चला
जाता था। यहां तक कि स्टेशन कोई दो
फ़र्लांग से नजर आया। सिगनल डाउन था। मेरी
हिम्मत भी उस सिगनल की तरह डाउन हो गयी, उम्र
के तक़ाजे से एक सौ क़दम दौड़ा जरुर मगर यह निराशा की हिम्मत थी। मेरे देखते-देखते गाड़ी आयी, एक मिनट ठहरी और रवाना हो गयी।
स्कूल की घड़ी यक़ीनन आज और दिनों से भी
ज्यादा सुस्त थी।
अब
स्टेशन पर जाना बेकार था। दूसरी गाड़ी ग्यारह बजे रात को आयगी, मेरे घरवाले स्टेशन पर कोई
बारह बजे पुहुँचेगी और वहां से मकान पर जाते-जाते एक बज जाएगा। इस सन्नाटे
में रास्ता चलना भी एक मोर्चा था जिसे
जीतने की मुझमें हिम्मत न थी। जी में तो आया कि चलकर हेडमास्टर को आड़े हाथों लूं
मगरी जब्त किया और चलने के लिए तैयार हो
गया। कुल बारह मील ही तो हैं, अगर
दो मील फ़ी घण्टा भी चलूं तो छ: घण्टों
में घर पहुँच सकता हूँ। अभी पॉँच बजे हैं, जरा क़दम बढ़ाता जाऊँ तो दस
बजे यकीनन पहुँच जाऊँगा। अम्मं और
मुन्नू मेरा इन्तजार कर रहे होंगे, पहुँचते ही गरम-गरम खाना मिलेगा।
कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा होगा, वहां
से गरम-गरम रस पीने को आ जाएगा और जब लोग
सुनेंगे कि मैं इतनी दूर पैदल आया हूँ तो उन्हें कितना अचवरज होगा! मैंने फ़ौरन गंगा की तरफ़
पैर बढ़ाया। यह क़स्बा नदी के किनारे था और मेरे गांव की सड़क नदी के उस पार से थी। मुझे इस रास्ते
से जाने का कभी संयोग न हुआ था, मगर
इतना सुना था कि कच्ची सड़क सीधी चली जाती है, परेशानी
की कोई बात न थी, दस
मिनट में नाव पार पहुँच जाएगी और बस फ़र्राटे भरता चल दूंगा। बारह मील कहने को तो
होते हैं,
हैं तो कुल
छ: कोस।
मगर
घाट पर पहुँचा तो नाव में से आधे मुसाफिर
भी न बैठे थे। मैं कूदकर जा बैठा।
खेवे के पैसे भी निकालकर दे दिये लेकिन नाव है कि वहीं अचल ठहरी हुई है।
मुसाफिरों की संख्या काफ़ी नहीं है, कैसे खुले। लोग तहसील
और कचहरी से आते जाते हैं औ बैठते जाते हैं और मैं हूँ कि अन्दर हीर अन्दर भुना जाता हूँ। सूरज
नीचे दौड़ा चला जा रहा है, गोया मुझसे बाजी लगाये हुए है। अभी सफेद था, फिर पीला होना शुरु हुआ और देखते
– देखते लाल हो गया। नदी के उस पार
क्षितिजव पर लटका हुआ, जैसे
कोई डोल कुएं पर लटक रहा है। हवा में कुछ
खुनकी भी आ गयी, भूख
भी मालूम होने लगी। मैंने आज धर जाने की खुशी और हड़बड़ी में रोटियां न पकायी थीं, सोचा था कि शाम को तो घर पहुँच जाऊँगा ,लाओ एक पैसे के चने लेकर खा लूं। उन दानों ने
इतनी देर तक तो साथ दिया ,अब पेट की पेचीदगियों में जाकर न जाने कहां
गुम हो गये। मगर क्या गम है, रास्ते
में क्या दुकानें न होंगी, दो-चार
पैसे की मिठाइयां लेकर खा लूंगा।
जब
नाव उस किनारे पहुँची तो सूरज की सिर्फ अखिरी सांस बांकी थी, हालांकि
नदी का पाट बिलकुल पेंदे में चिमटकर रह गया था।
मैंने
पोटली उठायी और तेजी से चला। दोनों तरफ़ चने के खेते थे जिलनके ऊदे फूलों पर ओस
सका हलका-सा पर्दा पड़ चला था। बेअख्त़ियार एक खेत में घुसकर बूट उखाड़ लिये और
टूंगता हुआ भागा।
सामने बारह मील की मंजिल है, कच्चा सुनसान रास्ता, शाम हो गयी है, मुझे पहली बार गलती मालूम हुई।
लेकिन बचपन के जोश ने कहा, क्या
बात है, एक-दो मील तो दौड़ ही सकते हैं।
बारह को मन में १७६० से गुणा किया, बीस
हजार गज़ ही तो होते हैं। बारह मील के
मुक़ाबिले में बीस हज़ार गज़ कुछ हलके और आसान मालूम हुए। और जब दो-तीन मील रह जाएगा तब तो एक तरह से
अपने गांव ही में हूंगा, उसका
क्या शुमार। हिम्मत बंध गयी। इक्के-दुक्के मुसाफिर भी पीछे चले आ रहे थे, और इत्मीनान हुआ।
अंधेरा
हो गया है,
मैं लपका
जा रहा हूँ। सड़क के किनारे दूर से एक झोंपड़ी नजर आती है। एक कुप्पी जल रही है। ज़रुर किसी बनिये की
दुकान होगी। और कुछ न होगा तो गुड़ और चने तो मिल ही जाएंगे। क़दम और तेज़ करता
हूँ। झोंपड़ी आती है। उसके सामने एक क्षण के निलए खड़ा हो जाता हूँ। चार –पॉँच आदमी उकड़ूं बैठे हुए हैं, बीच में एक बोतल है, हर एक के सामने एक-एक कुल्हाड़।
दीवार से मिली हुई ऊंची गद्दी है, उस
पर साहजी बैठे हुए हैं, उनके
सामने कई बोतलें रखी हुई हैं। ज़रा और
पीछे हटकर एक आदमी कड़ाही में सूखे मटर
भून रहा है। उसकी सोंधी खुशबू मेरे शरीर में बिजली की तरह दौड़ जाती है। बेचैन होकर जेब
में हाथ डालता हूँ और एक पैसा निकालकर उसकी
तरफ चलता हूँ लेकिन पांव आप ही रुक जाते हैं – यह कलवारिया है।
खोंचेवाला पूछता है – क्या लोगे ?
मैं
कहता हूं –
कुछ नहीं।
और
आगे बढ़ जाता हूँ। दुकान भी मिली तो शराब की, गोया
दुनियसा में इन्सान के लिए शराब रही सबसे जरुरी चीज है। यह सब आदमी धोबी और चमार
होंगे, दूसरा कौन शराब पीता है, देहात में। मगर वह मटर का आकर्षक
सोंधापन मेरा पीछा कर रहा है और मैं भागा जा रहा हूँ।
किताबों
की पोटली जी का जंजाल हो गया है, ऐसी
इच्छा होती है कि इसे यहीं सड़क पर पटक दूं।
उसका वज़न मुश्किल से पांच सेर होगा, मगर
इस वक्त मुझे मन-भर से ज्यादा मालूम हो रही है। शरीर में कमजोरी महसूस हो रही है। पूरनमासी का चांद पेड़ो के ऊपर जा बैठा है और पत्तियों के बीच से जमीन की तरफ झांक रहा है। मैं बिलकुल अकेला जा रहा हूँ, मगर दर्द बिलकुल नहीं है, भूख ने सारी चेतना
को दबा रखा है और खुद उस पर
हावी हो गयी है।
आह हा, यह
गुड़ की खुशबू कहां से आयी ! कहीं ताजा
गुड़ पक रहा है। कोई गांव क़ रीब ही होगा। हां, वह आमों के झुरमुट में रोशनी नजर आ रही है। लेकिन वहां
पैसे-दो पैसे का गुड़ बेचेगा और यों मुझसे
मांगा न जाएगा,
मालूम नहीं
लोग क्या समझें। आगे बढ़ता हूँ, मगर
जबान से लार टपक रही हैं गुउ़ से मुझे बड़ा प्रेम है। जब कभी किसी चीज की दुकान खोलने की सोचता था तो वह हलवाई की दुकान होती थी। बिक्री हो या न
हो, मिठाइयां तो खाने को मिलेंगी। हलवाइयों को देखो, मारे मोटापे के हिल नहीं सकते।
लेकिन वह बेवकूफ होते हैं, आरामतलबी
के मारे तोंद निकाल लेते हैं, मैं कसरत करता रहूँगा। मगर गुड़
की वह धीरज की परीक्षा लेनेवाली, भूख
को तेज करनेवाली खूशबू बराबर आ रही है। मुझे वह घटना याद आती है, जब अम्मां तीन महीने के लिए अपने
मैके या मेरी ननिहाल गयी थीं और मैंने तीन महीने के एक मन गुड़ का सफ़ाया कर दिया
था। यही गुड़ के दिन थे। नाना बिमार थे, अम्मां को बुला भेजा था। मेरा इम्तहान पास था इसलिए
मैं उनके साथ न जा सका, मुन्नू
को लेती गयीं। जाते वक्त उन्होंने एक मन गुउ़ लेकर उस मटके में रखा और उसके
मुंह पर सकोरा रखकर मिट्टी से बन्द कर
दिया। मुझे सख्त ताकीद कर दी कि मटका न खोलना। मेरे लिए
थोड़ा-सा गुड़ एक हांडी में रख दिया था। वह हांड़ी मैंने एक हफ्ते में सफाचट कर दी
सुबह को दूध के साथ गुड़, रात
को फिर दूध के साथ गुउ़। यहॉँ तक जायज खर्च था जिस पर अम्मां को भी कोई एतराज न
हो सकता। मगर स्कूलन से बार-बार पानी पीने
के बहाने घर आता और दो-एक पिण्डियां निकालकर खा लेता- उसकी बजट में कहां गुंजाइश
थी। और मुझे गुड़ का कुछ ऐसा चस्का पड़ गया कि हर वक्त वही नशा सवार रहता। मेरा घर
में आना गुड़ के सिर शामत आना था। एक
हफ्ते में हांडी ने जवाब दे दिया। मगर
मटका खोलने की सख्त मनाही थी और अम्मां के ध्ज्ञर आने में अभी पौने तीन महीने
ब़ाकी थे। एक दिन तो मैंने बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे सब्र किया लेकिन दूसरे दिन क आह के साथ सब्र जाता रहा और मटके
को बन्द कर दिया और संकल्प कर लिया कि इस हांड़ी को तीन महीने चलाऊंगा। चले या न
चले, मैं चलाये जाऊंगा। मटके को वह
सात मंजिल समझूंगा जिसे रुस्तम भी न खोल
सका था। मैंने मटके की पिण्डियों
को कुछ इस तरह कैंची लगकार रखा कि जैसे बाज
दुकानदार दियासलाई की डिब्बियां भर
देते हैं। एक हांड़ी गुउ़ खाली हो जाने पर भी मटका मुंहों मुंह भरा था। अम्मां को पता ही चलेगा, सवाल-जवाब की नौबत कैसे आयेगी। मगर दिल और जान में वह
खींच-तान शुरु हुई कि क्या कहूं, और
हर बार जीत जबान ही के हाथ रहती। यह दो अंगुल की जीभ दिल जैसे शहज़ोर पहलवान को
नचा रही थी,
जैसे मदारी
बन्दर को नचाये-उसको, जो
आकाश में उड़ता है और सातवें आसमान के मंसूबे बांधता है और अपने जोम में फ़रऊन को
भी कुछ नहीं समझता। बार-बार इरादा करता, दिन-भर
में पांच पिंडियों से ज्यादा न खाऊं लेकिन यह इरादा शाराबियों की तौबा की तरह
घंटे-दो से ज्यादा न टिकता। अपने को कोसता, धिक्कारता-गुड़
तो खा रहे हो मगरर बरसात में सारा शरीर सड़ जाएगा, गंधक का मलहम लगाये घूमोगे, कोई तुम्हारे पास बैठना भी न
पसन्द करेगा ! कसमें खाता, विद्या
की, मां की, स्वर्गीय पिता की, गऊ की, ईश्वर की, मगर उनका भी वही हाल होता। दूसरा
हफ्ता खत्म होते-होते हांड़ी भी खत्म हो
गयी। उस दिन मैं ने बड़े भक्तिभाव से ईश्वर से प्रार्थना की – भगवान्, यह मेरा चंचल लोभी मन मुझे
परेशान कर रहा है, मुझे
शक्ति दो कि उसको वश में रख सकूं। मुझे अष्टधात की लगाम दो जो उसके मुंह में डाल
दूं! यह अभागा मुझे अम्मां से पिटवाने आैर घुड़कियां खिलवाने पर तुला हुआ है, तुम्हीं मेरी रक्षा करो तो बच
सकता हूँ। भक्ति की विह्वलता के मारे मेरी आंखों से दो- चार बूंदे आंसुओं की भी
गिरीं लेकिन ईश्वर ने भी इसकी सुनवायी न की और गुड़ की बुभुक्षा मुझ पर छायी रही ; यहां तक कि दूसरी हांड़ी का
मर्सिया पढ़ने कीर नौबत आ पहुँची।
संयोग
से उन्हीं दिनों तीन दिन की छुट्टी हुई और मैं अम्मां से मिलने ननिहाल गया।
अम्मां ने पूछा- गुड़ का मटका देखा
है? चींटे तो नहीं लगे? सीलत तो नहीं पहुँची? मैंने मटकों को देखने की
कसम खाकर अपनी ईमानदारी का सबूत दिया।
अम्मां ने मुझे गर्व के नेत्रों से देखा
और मेरे आज्ञा- पालन के पुरस्कार- स्वरुप मुझे एक हांडी निकाल लेने की
इजाजत दे दी,
हां, ताकीद भी करा दी कि मटकं का मुंह अच्छी तरह बन्द कर देना। अब तो वहां
मुझे एक-एक –दिन एक –एक युग मालूम होने लगा। चौथे दिन घर आते ही
मैंने पहला काम जो किया वह मटका खोलकर हांड़ी – भर गुड़ निकालना था। एकबारगी पांच पींडियां उड़ा गया फिर वहीं
गुड़बाजी शुरु हुई। अब क्या गम हैं, अम्मां
की इजाजत मिल गई थी। सैयां भले कोतवाल, और आठ दिन में हांड़ी गायब !
आखिर मैंने अपने दिल की कमजोरी से मजबूर होकर मटके की कोठरी के दरवाजे पर ताला डाल
दिया और कुंजी दीवार की एक मोटी संधि में डाल दी।
अब देखें तुम कैसे गुड़ खाते हो। इस संधि में से कुंजी निकालने का मतलब
यह था कि तीन हाथ दीवार खोद डाली जाय और यह हिम्म्त मुझमें न थी। मगर तीन दिन में
ही मेरे धीरज का प्याला छलक उठा औ इन तीन दिनों में भी दिल की जो हालत थी वह बयान से बाहर है। शीरीं, यानी मीठे गुड़, की कोठरी की तरफ से बार- बार
गुजरता और अधीर नेत्रों से देखता और हाथ मलकर रह जाता। कई बार ताले को खटखटाया,खींचा, झटके
दिये, मगर जालिम जरा भी न हुमसा। कई
बार जाकर उस संधि की जांच -पडताल की, उसमें झांककर देखा, एक लकड़ी से उसकी गहराई का
अन्दाजा लगाने की कोशिश की मगर उसकी तह न मिली। तबियत खोई हुई-सी रहती, न खाने-पीने में कुछ मज़ा था, न खेलने-कूदने में। वासना
बार-बार युक्तियों के जारे खाने-पीने में
कुछ मजा था, न
खेलने-कूदने में। वासना बार-बार युक्तियों के जोर से दिल को कायल करने की
कोशिश करती। आखिर गुड़ और किस मज्र् की
दवा है। मे। उसे फेंक तो देता नहीं, खाता
ही तो हूँ,
क्या आज
खाया और क्या एक महीनेबाद खाया, इसमें
क्या फर्क है। अम्मां ने मनाही की है
बेशक लेकिन उन्हे ंमुझेस एक उचित काम से
अलग रखने का क्या हक है? अगर वह आज कहें खेलने मत जाओ या पेंड़ पर मत चढ़ो या तालाब में तैरने मत जाओ, या चिड़ियों के लिए कम्पा मत
लगाओ, तितलियां मत पकड़ो, तो क्या में माने लेता हूँ ? आखिर चौथे दिन वासना की जीत हुई।
मैंने तड़के उठकर एक कुदाल लेकर दीवार
खोदना शुरु किया। संधि थी ही, खोदने
में ज्यादा देर न लगी, आध घण्टे के घनघोर परिश्रम के
बाद दीवार से कोई गज-भर लम्बा और तीन इंच मोटा चप्पड़ टूटकर नीचे गिर पड़ा और संधि
की तह में वह सफलता की कुंजी पड़ी हुई थी, जैसे
समुन्दर की तह में मोती की सीप पड़ी हो।
मैंने झटपट उसे निकाला और फौरन दरवाजा खोला, मटके से गुउ़ निकालकर हांड़ी में
भरा और दरवाजा बन्द कर दिया। मटके में इस
लूट-पाट से स्पष्ट कमी पैदा हो गयी थी।
हजार तरकीबें आजमाने पर भी इसका गढ़ा न भरा। मगर अबकी बार मैंने चटोरेपन का अम्मां की वापसी तक खात्मा कर देने के लिए कुंजी को कुएं में
डाल दिया। किस्सा लम्बा है , मैंने
कैसे ताला तोड़ा, कैसे गुड़ निकाला और मटका खाली हो जाने पर कैसे फोड़ा और उसके
टुकड़े रात को कुंए में फेंके और अम्मां
आयीं तो मैंने कैसे रो-रोकर उनसे मटके के
चोरी जाने की कहानी कही, यह बयन करने लगा तो यह घटना जो
मैं आज लिखने बैठा हूँ अधूरी रह जाएगी।
चुनांचे
इस वक्त गुड़ की उस मीठी खुशबू ने मुझे बेसुध बना दिया। मगर मैं सब्र करके आगे
बढ़ा।
ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, शरीर थकान से चूर होता जाता था, यहॉँ तक कि पांव कांपने लगे।
कच्ची सड़क पर गाड़ियों के पहियों की लीक पड़ गयी थी। जब कभी लीक में पांव चला
जाता तो मालूम होता किसी गहरे गढ़े में गिर पड़ा हूँ। बार-बार जी में आता, यहीं सड़क के किनारे लेट जाऊँ।
किताबों की छोटी-सी पोटली मन-भर की लगती थी। अपने को कोसता था कि किताबें लेकर
क्यों चला। दूसरी जबान का इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। मगर छुट्टियों में एक
दिन भी तो किताब खोलने की नौबत न आयेगी, खामखाह
यह बोझ उठाये चला आता हूँ। ऐसा जी झुंझलाता था कि इस मूर्खता के बोझ को वहीं पटक
दूँ। आखिर टॉँगों ने चलने से इनकार कर दिया। एक बार मैं गिर पड़ा और और सम्हलकर
उठा तो पांव थरथरा रहे थे। अब बगैर कुछ
खाये पैर उठना दूभर था, मगर
यहां क्या खाऊँ। बार-बार रोने को जी चाहता था। संयोग से एक ईख का खेत नज़र आया, अब मैं अपने को न रोक सका। चाहता
था कि खेत में घुसकर चार-पांच ईख तोड़ लूँ और मजे से रस चूसता हुआ चलूँ। रास्ता भी
कट जाएगा और पेट में कुछ पड़ भी जाएगा। मगर मेड़ पर पांव रखा ही था कि कांटों में
उलझ गया। किसान ने शायद मेंड़ पर कांटे बिखेर दिये थे। शायद बेर की झाड़ी थी।
धोती-कुर्ता सब कांटों में फंसा हुआ , पीछे
हटा तो कांटों की झाड़ी साथ-साथ चलीं, कपड़े
छुड़ाना लगा तो हाथ में कांटे चुभने लगे। जोर से खींचा तो धोती फट गयी। भूख तो
गायब हो गयी,
फ़िक्र
हुई कि इन नयी मुसीबत से क्योंकर छुटकारा हो। कांटों को एक जगह से
अलग करता तो दूसरी जगह चिमट जाते, झुकता
तो शरीर में चुभते, किसी
को पुकारूँ तो चोरी खुली जाती है, अजीब
मुसीबत में पड़ा हुआ था। उस वक्त मुझे अपनी
हालत पर रोना आ गया , कोई
रेगिस्तानों की खाक छानने वाला आशिक भी इस
तरह कांटों में फंसा होगा ! बड़ी मंश्किल से आध घण्टे में गला छूटा मगर धोती और
कुर्ते के माथे गयी ,हाथ
और पांव छलनी हो गये वह घाते में । अब एक क़दम आगे रखना मुहाल था। मालूम नहीं
कितना रास्ता तय हुआ, कितना
बाकी है, न कोई आदमी न आदमज़ाद, किससे पूछूँ। अपनी हालत पर रोता
हुआ जा रहा था। एक बड़ा गांव नज़र आया । बड़ी खुशी हुई। कोई न कोई दुकान मिल ही
जाएगी। कुछ खा लूँगा और किसी के सायबान में पड़ रहूँगा, सुबह देखी जाएगी।
मगर देहातों में लोग सरे-शाम सोने के आदी
होते है। एक आदमी कुएं पर पानी भर रहा था। उससे पूछा तो उसने बहुत ही निराशाजनक
उत्तर दिया—अब यहां कुछ न मिलेगा। बनिये
नमक-तेल रखते हैं। हलवाई की दुकान एक भी नहीं। कोई शहर थोड़े ही है, इतनी रात तक दुकान खोले कौन बैठा
रहे !
मैंने उससे बड़े विनती के स्वर में कहा-कहीं
सोने को जगह मिल जाएगी ?
उसने पूछा-कौन हो तुम ? तुम्हारी जान – पहचान का यहां कोई नही है ?
‘जान-पहचान का कोई होता तो तुमसे
क्यों पूछता ?’
‘तो भाई, अनजान
आदमी को यहां नहीं ठहरने देंगे । इसी तरह कल एक मुसाफिर आकर ठहरा था, रात को एक घर में सेंध पड़ गयी, सुबह को मुसाफ़िर का पता न था।’
‘तो क्या तुम समझते हो, मैं चोर हूँ ?’
‘किसी के माथे पर तो लिखा नहीं होता, अन्दर का हाल कौन जाने !’
‘नहीं ठहराना चाहते न सही, मगर चोर तो न बनाओ। मैं जानता यह
इतना मनहुस गांव है तो इधर आता ही क्यों ?’
मैंने ज्यादा खुशामद न की, जी जल गया। सड़क पर आकर फिर आगे
चल पड़ा। इस वक्त मेरे होश ठिकाने न थे। कुछ खबर नहीं किस रास्ते से गांव में आया
था और किधर चला जा रहा था। अब मुझे अपने घर पहुँचने की उम्मीद न थी। रात यों ही
भटकते हुए गुज़रेगी, फिर
इसका क्या ग़म कि कहां जा रहा हूँ। मालूम नहीं कितनी देर तक मेरे दिमाग की यह हालत
रही। अचानक एक खेत में आग जलती हुई दिखाई पड़ी कि जैसे आशा का दीपक हो। जरूर वहां
कोई आदमी होगा। शायद रात काटने को जगह मिल जाए। कदम तेज किये और करीब पहुँचा कि
यकायक एक बड़ा-सा कुत्ता भूँकता हुआ मेरी तरफ दौड़ा। इतनी डरावनी आवाज थी कि मैं
कांप उठा। एक पल में वह मेरे सामने आ गया और मेरी तरफ़ लपक-लपककर भूँकने लगा। मेरे
हाथों में किताबों की पोटली के सिवा और क्या था, न कोई लकड़ी थी न पत्थर , कैसे भगाऊँ, कहीं बदमाश मेरी टांग पकड़ ले तो
क्या करूँ ! अंग्रेजी नस्ल का शिकारी कुत्ता मालूम होता था। मैं जितना ही धत्-धत्
करता था उतना ही वह गरजता था। मैं खामोश खड़ा हो गया और पोटली जमीन पर रखकर पांव
से जूते निकाल लिये, अपनी
हिफ़ाजत के लिए कोई हथियार तो हाथ में हो ! उसकी तरफ़ गौर सें देख रहा था कि
खतरनाक हद तक मेरे करीब आये तो उसके सिर पर इतने जोर से नालदार जूता मार दूं कि
याद ही तो करे लेकिन शायद उसने मेरी नियत ताड़ ली और इस तरह मेरी तरफ़ झपटा कि मैं
कांप गया और जूते हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़े। और उसी वक्त मैंने डरी हुई आवाज
में पुकारा-अरे खेत में कोई है, देखो
यह कुत्ता मुझे काट रहा है ! ओ महतो, देखो
तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।
जवाब मिला—कौन है ?
‘मैं हूँ, राहगीर, तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा
है।’
‘नहीं, काटेगा
नहीं , डरो मत। कहां जाना है ?’
‘महमूदनगर।’
‘महमूदनगर का रास्ता तो तुम पीछे छोड़ आये, आगे तो नदी हैं।’
मेरा कलेजा बैठ गया, रुआंसा होकर बोला—महमूदनगर का रास्ता कितनी दूर छूट गया है ?
‘यही कोई तीन मील।’
और एक लहीम-शहीम आदमी हाथ में लालटन लिये
हुए आकर मेरे आमने खड़ा हो गया। सर पर हैट था, एक मोटा फ़ौजी ओवरकोट पहने हुए, नीचे निकर, पांव में फुलबूट, बड़ा लंबा-तड़ंगा, बड़ी-बड़ी मूँछें, गोरा रंग, साकार पुरुस-सौन्दर्य। बोला—तु
म तो कोई स्कूल के लडके मालूम होते हो।
‘लड़का तो नहीं हूँ, लड़कों का मुदर्रिस हूँ, घर जा रहा हूँ। आज से तीन दिन की
छुट्टी है।’
‘तो रेल से क्यों नहीं गये ?’
रेल छूट गयी और दूसरी एक बजे छूटती है।’
‘वह अभी तुम्हें मिल जाएगी। बारह का अमल है।
चलो मैं स्टेशन का रास्ता दिखा दूँ।’
‘कौन-से स्टेशन का ?’
‘भगवन्तपुर का।’
‘भगवन्तपुर ही से तो मैं चला हूँ। वह बहुत
पीछे छूट गया होगा।’
‘बिल्कुल नहीं, तुम भगवन्तपुर स्टेशन से एक मील
के अन्दर खड़े हो। चलो मैं तुम्हें स्टेशन का रास्ता दिखा दूँ। अभी गाड़ी मिल जाएगी।
लेकिन रहना चाहो तो मेरे झोंपड़े में लेट जाओ। कल चले जाना।’
अपने ऊपर गुस्सा आया कि सिर पीट लूं। पांच
बजे से तेली के बैल की तरह घूम रहा हूँ और अभी भगवन्तपुर से कुल एक मील आया हूँ।
रास्ता भूल गया। यह घटना भी याद रहेगी कि चला छ: घण्टे और तय किया एक मील। घर
पहुँचने की धुन जैसे और भी दहक उठी।
बोला—नहीं
, कल तो होली है। मुझे रात को
पहुँच जाना चाहिए।
‘मगर रास्ता पहाड़ी है, ऐसा न हो कोई जानवर मिल जाए।
अच्छा चलो,
मैं
तुम्हें पहुँचाये देता हूँ, मगर
तुमने बड़ी गलती की , अनजान
रास्ते को पैदल चलना कितना खतरनाक है। अच्छा चला मैं पहुँचाये देता हूँ। ख़ैर, खड़े रहो, मैं अभी आता हूँ।’
कुत्ता दुम हिलाने लगा और मुझसे दोस्ती करने
का इच्छुक जान पड़ा। दुम हिलाता हुआ, सिर
झुकाये क्षमा-याचना के रूप में मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। मैंने भी बड़ी उदारता से
उसका अपराध क्षमा कर दिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। क्षण—भर में वह आदमी बन्दूक कंधे पर रखे आ गया और
बोला—चलो, मगर अब ऐसी नादानी न करना, ख़ैरियत हुई कि मैं तुम्हें मिल
गया। नदी पर पहुँच जाते तो जरूर किसी जानवर से मुठभेड़ हो जाती।
मैंने पूछा—आप तो कोई अंग्रेज मालूम होते हैं मगर आपकी
बोली बिलकुल हमारे जैसी है ?
उसने हंसकर कहा—हां, मेरा
बाप अंग्रेज था, फौजी
अफ़सर। मेरी उम्र यहीं गुज़री है। मेरी मां उसका खाना पकाती थी। मैं भी फ़ौज में
रह चुका हूँ। योरोप की लड़ाई में गया था, अब
पेंशन पाता हूँ। लड़ाई में मैंने जो दृश्य अपनी आंखों से देखे और जिन हालात में
मुझे जिन्दगी बसर करनी पड़ी और मुझे अपनी इन्सानियत का जितना खून करना पड़ा उससे
इस पेशे से मुझे नफ़रत हो गई और मैं पेंशन लेकर यहां चला आया । मेरे पापा ने यहीं
एक छोटा-सा घर बना लिया था। मैं यहीं रहता हूँ और आस-पास के खेतों की रखवाली करता
हूँ। यह गंगा की धाटी है। चारों तरफ पहाड़ियां हैं। जंगली जानवर बहुत लगते है।
सुअर, नीलगाय, हिरन सारी खेती बर्बाद कर देते
हैं। मेरा काम है, जानवरों
से खेती की हिफ़ाजत करना। किसानों से मुझे हल पीछे एक मन गल्ला मिल जाता है। वह
मेरे गुज़र-बसर के लिए काफी होता है। मेरी बुढ़िया मां अभी जिन्दा है। जिस तरह
पापा का खाना पकाती थी , उसी
तरह अब मेरा खाना पकाती है। कभी-कभी मेरे पास आया करो, मैं तुम्हें कसरत करना सिखा
दूँगा, साल-भर मे पहलवान हो जाओगे।
मैंने पूछा—आप अभी तक कसरत करते हैं?
वह बोला—हां, दो
घण्टे रोजाना कसरत करता हूँ। मुगदर और लेज़िम का मुझे बहुत शौक है। मेरा पचासवां
साल है, मगर एक सांस में पांच मील दौड़
सकता हूँ। कसरत न करूँ तो इस जंगल में रहूँ कैसे। मैंने खूब कुश्तियां लड़ी है।
अपनी रेजीमेण्ट में खूब मज़बूत आदमी था। मगर अब इस फौजी जिन्दगी की हालातों पर गौर
करता हूँ तो शर्म और अफ़सोस से मेरा सर झुक जाता है। कितने ही बेगुनाह मेरी रायफल
के शिकार हुएं मेरा उन्होंने क्या नुकसान किया था ? मेरी उनसे कौन-सी अदावत थी? मुझे तो जर्मन और आस्ट्रियन
सिपाही भी वैसे ही सच्चे, वैसे
ही बहादुर,
वैसे ही
खुशमिज़ाज,
वेसे ही
हमदर्द मालूम हुए जैसे फ्रांस या इंग्लैण्ड के । हमारी उनसे खूब दोस्ती हो गयी थी, साथ खेलते थे, साथ बैठते थे, यह खयाल ही न आता था कि यह लोग
हमारे अपने नही हैं। मगर फिर भी हम एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। किसलिए ? इसलिए कि बड़े-बड़े अंग्रेज
सौदागरों को खतरा था कि कहीं जर्मनी उनका रोज़गार न छीन ले। यह सौदागरों का राज
है। हमारी फ़ौजें उन्हीं के इशारों पर नाचनेवाली कठपुतलियां हैं। जान हम गरीबों की
गयी, जेबें गर्म हुई मोटे-मोटे
सौदागरों की । उस वक्त हमारी ऐसी खातिर होती थी, ऐसी पीठ ठोंकी जाती थी, गोया हम सल्तनत के दामाद हैं।
हमारे ऊपर फूलों की बारिश होती थी, हमें
गाईन पार्टियां दी जाती थीं, हमारी
बहादुरी की कहानियां रोजाना अखबारों में तस्वीरों के साथ छपती थीं। नाजुक-बदल
लेडियां और शहज़ादियां हमारे लिए कपड़े सीती थीं, तरह-तरह के मुरब्बे और अचार
बना-बना कर भेजती थीं। लेकिन जब सुलह हो गयी तो उन्ही जांबाजों को कोई टके को भी न
पूछता था। कितनों ही के अंग भंग हो गये थे, कोई
लूला हो गया था, कोई
लंगड़ा,कोई अंधा। उन्हें एक टुकड़ा रोटी
भी देनेवाला कोई न था। मैंने कितनों ही को सड़क पर भीख मांगते देखा। तब से मुझे इस
पेशे से नफ़रत हो गयी। मैंने यहॉँ आकर यह काम अपने जिम्मे ले लिया और खुश हूँ।
सिपहगिरी इसलिए है कि उससे गरीबों की जानमाल की हिफ़ाजत हो, इसलिए नहीं कि करोड़पतियों की
बेशुमार दौलत और बढ़े। यहां मेरी जान हमेशा खतरे में बनी रहती है। कई बार
मरते-मरते बचा हूँ लेकिन इस काम में मर भी जाऊँ तो मुझे अफ़सोस न होगा, क्योंकि मुझे यह तस्कीन होगा कि
मेरी जिन्दगी ग़रीबों के काम आयी। और यह बेचारे किसान मेरी कितनी खातिर करते हैं
कि तुमसे क्या कहूँ। अगर मैं बीमर पड़ जाऊँ और उन्हें मालू हो जाए कि मैं उनके
शरीर के ताजे खून से अच्छा हो जाऊँगा तो बिना झिझके अपना खून दे देंगे। पहले मैं
बहुत शराब पीता था। मेरी बिरादरी को तो तुम लोग जानते होगे। हममें बहुत ज्यादा लोग
ऐसे हैं, जिनको खाना मयस्सर हो या न हो
मगर शराब जरूर चाहिए। मैं भी एक बोतल शराब रोज़ पी जाता था। बाप ने काफी पैसे
छोड़े थे। अगर किफ़ायत से रहना जानता तो जिन्दगी-भर आराम से पड़ा रहता। मगर शराब
ने सत्यानाश कर दिया। उन दिनों मैं बड़े ठाठ से रहता था। कालर –टाई लगाये, छैला बना हुआ, नौजवान छोकरियों से आंखें लड़ाया
करता था। घुड़दौड़ में जुआ खेलना, शरीब
पीना, क्लब में ताश खेलना और औरतों से
दिल बहलाना,
यही मेरी
जिन्दगी थी । तीन-चार साल में मैंने पचीस-तीस हजार रुपये उड़ा दिये। कौड़ी कफ़न को
न रखी। जब पैसे खतम हो गये तो रोजी की फिक्र हुई। फौज में भर्ती हो गया। मगर खुदा
का शुक्र है कि वहां से कुछ सीखकर लौटा यह सच्चाई मुझ पर खुल गयी कि बहादुर का काम
जान लेना नहीं,
बल्कि जान
की हिफ़ाजत करना है।
‘योरोप से आकर एक दिन मैं शिकार खेलने लगा और
इधर आ गया। देखा, कई
किसान अपने खेतों के किनारे उदास खड़े हैं मैंने पूछा क्या बात है ? तुम लोग क्यों इस तरह उदास खड़े
हो ? एक आदमी ने कहा—क्या करें साहब, जिन्दगी से तंग हैं। न मौत आती
है न पैदावार होती है। सारे जानवर आकर खेत चर जाते हैं। किसके घर से लगान चुकायें, क्या महाजन को दें, क्या अमलों को दें और क्या खुद
खायें ? कल इन्ही खेतो को देखकर दिल की
कली खिल जाती थी, आज
इन्हे देखकर आंखों मे आंसू आ जाते है जानवरों ने सफ़ाया कर दिया ।
‘मालूम नहीं उस वक्त मेरे दिल पर किस देवता या
पैगम्बर का साया था कि मुझे उन पर रहम आ गया। मैने कहा—आज से मै तुम्हारे खेतो की रखवाली करूंगा।
क्या मजाल कि कोई जानवर फटक सके । एक दाना जो जाय तो जुर्माना दूँ। बस, उस दिन से आज तक मेरा यही काम
है। आज दस साल हो गये, मैंने
कभी नागा नहीं किया। अपना गुज़र भी होता है और एहसान मुफ्त मिलता है और सबसे बड़ी
बात यह है कि इस काम से दिल की खुशी होती है।’
नदी आ गयी। मैने देखा वही घाट है जहां शाम
को किश्ती पर बैठा था। उस चांदनी में नदी जड़ाऊ गहनों से लदी हुई जैसे कोई सुनहरा
सपना देख रही हो।
मैंने पूछा—आपका नाम क्या है ? कभी-कभी आपके दर्शन के लिए आया
करूँगा।
उसने लालटेन उठाकर मेरा चेहरा देखा और बोला –मेरा नाम जैक्सन है। बिल जैक्सन। जरूर आना।
स्टेशन के पास जिससे मेरा नाम पूछोगे, मेरा
पता बतला देगा।
यह कहकर वह पीछे की तरफ़ मुड़ा, मगर यकायक लौट पड़ा और बोला— मगर तुम्हें यहां सारी रात बैठना
पड़ेगा और तुम्हारी अम्मां घबरा रही होगी। तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ तो मैं
तुम्हें उस पार पहुँचा दूँ। आजकल पानी बहुत कम है, मैं तो अक्सर तैर आता हूँ।
मैंने एहसान से दबकर कहा—आपने यही क्या कम इनायत की है कि मुझे यहां
तक पहुँचा दिया, वर्ना
शायद घर पहुँचना नसीब न होता। मैं यहां बैठा रहूँगा और सुबह को किश्ती से पार उतर
जाऊँगा।
‘वाह, और
तुम्हारी अम्मां रोती होंगी कि मेरे लाड़ले पर न जाने क्या गुज़री ?’
यह कहकर मिस्टर जैक्सन ने मुझे झट उठाकर
कंधे पर बिठा लिया और इस तरह बेधड़क पानी में घुसे कि जैसे सूखी जमीन है । मैं
दोनों हाथों से उनकी गरदन पकड़े हूँ, फिर
भी सीना धड़क रहा है और रगों में सनसनी-सी मालूम हो रही है। मगर जैक्सन साहब
इत्मीनान से चले जा रहे हैं। पानी घुटने तक आया, फिर कमर तक पहुँचा, ओफ्फोह सीने तक पहुँच गया। अब
साहब को एक-एक क़दम मुश्किल हो रहा है। मेरी जान निकल रही है। लहरें उनके गले लिपट
रही हैं मेरे पांव भी चूमने लगीं । मेरा जी चाहता है उनसे कहूँ भगवान् के लिए वापस
चलिए, मगर ज़बान नहीं खुलती। चेतना ने
जैसे इस संकट का सामना करने के लिए सब दरवाजे बन्द कर लिए । डरता हूँ कहीं जैक्सन
साहब फिसले तो अपना काम तमाम है। यह तो तैराक़ है, निकल जाएंगे, मैं लहरों की खुराक बन जाऊँगा।
अफ़सोस आता है अपनी बेवकूफी पर कि तैरना क्यों न सीख लिया ? यकायक जैक्सन ने मुझे दोनों
हाथों से कंधें के ऊपर उठा लिया। हम बीच धार में पहुँच गये थे। बहाव में इतनी तेजी
थी कि एक-एक क़दम आगे रखने में एक-एक मिनट लग जाता था। दिन को इस नदी में कितनी ही
बार आ चुका था लेकिन रात को और इस मझधार
में वह बहती हुई मौत मालूम होती थी दस –बारह
क़दम तक मैं जैक्सन के दोनों हाथों पर टंगा रहा। फिर पानी उतरने लगा। मैं देख न
सका, मगर शायद पानी जैक्सन के सर के
ऊपर तक आ गया था। इसीलिए उन्होंने मुझे हाथों पर बिठा लिया था। जब गर्दन बाहर निकल
आयी तो जोर से हंसकर बोले—लो
अब पहुँच गये।
मैंने कहा—आपको आज मेरी वजह से बड़ी तकलीफ़ हुई।
जैक्सन ने मुझे हाथों से उतारकर फिर कंधे पर
बिठाते हुए कहा—और
आज मुझे जितनी खुशी हुई उतनी आज तक कभी न हुई थी, जर्मन कप्तान को कत्ल करके भी
नहीं। अपनी मॉँ से कहना मुझे दुआ दें।
घाट पर पहुँचकर मैं साहब से रुखसत हुआ, उनकी सज्जनता, नि:स्वार्थ सेवा, और अदम्य साहस का न मिटने वाला
असर दिल पर लिए हुए। मेरे जी में आया, काश
मैं भी इस तरह लोगों के काम आ सकता।
तीन बजे रात को जब मैं घर पहुँचा तो होली
में आग लग रही थी। मैं स्टेशन से दो मील सरपट दौड़ता हुआ गया। मालूम नहीं भूखे
शरीर में दतनी ताक़त कहां से आ गयी थी।
अम्मां मेरी आवाज सुनते ही आंगन में निकल
आयीं और मुझे छाती से लगा लिया और बोली—इतनी
रात कहां कर दी, मैं
तो सांझ से तुम्हारी राह देख रही थी, चलो
खाना खा लो,
कुछ
खाया-पिया है कि नहीं ?
वह अब स्वर्ग में हैं। लेकिन उनका वह
मुहब्बत–भरा चेहरा मेरी आंखों के सामने
है और वह प्यार-भरी आवाज कानों में गूंज रही है।
मिस्टर जैक्सन से कई बार मिल चुका हूँ। उसकी
सज्जनता ने मुझे उसका भक्त बना दिया हैं। मैं उसे इन्सान नहीं फरिश्ता समझता हूँ।
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