बच्चों
के व्यक्तित्व-निर्माण में माता-पिता का योगदान
बच्चे मानवता की दिव्यतम निधि हैं। इनके
लालन-पालन में स्नेह एवं मार्ग दर्शन में विवेकपूर्ण दृष्टि तथा दूरदर्शिता की
आवश्यकता रहती है। बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में माता-पिता के त्याग, धैर्य, साहस, परिश्रम
आदि वे सूत्र हैं जिनके द्वारा उनमें आत्मविश्वास भरा जा सकता है। बच्चें के
व्यक्तित्व-निर्माण की पहली कार्यशाला उसका परिवार है। बच्चों को बाल्यकाल से ही
सामान्य सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देना चाहिए। संतोषजनक पारिवारिक जीवन व्यक्तित्व
के उचित विकास के लिए आवश्यक है। घर ही ऐसा स्थान है जहाँ बच्चे को निपुणता
प्राप्त होती है। एवं घर तभी एक पूर्ण घर माना जाता है, जब
वे बालक का लालन-पालन इतने उत्तम ढंग से करें कि बच्चे का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक
एवं सामाजिक रूप से पूर्ण विकास हो।
माता-पिता बच्चों के व्यक्तित्व और चरित्र दोनों
को प्रभावित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उनके आपसी
संबंधों और व्यवहार से बालमन सहज ही जुड़ जाता है। माता-पिता उसके लिए सुरक्षा और
स्नेह का स्रोत हैं। उनके परस्पर मधुर संबंध जहाँ बच्चों के चहुँमुखी विकास में
सहायक होते हैं, वहीं उनके आपसी तनावपूर्ण टूटते रिश्ते उनके
विकास को न केवल अवरूद्ध कर देते हैं,
वरन् उनके जीवन को अनेक कुंठाओं विकारों से भर
देते हैं। फलस्वरूप दमन, निराशा और पराजय जैसे भाव उनमें
पनपने लगते हैं। हम याद रखें, बच्चे आयु में छोटे होते हैं, समझ
में नहीं। वे चेहरे के भावों की भाषा पढ़ने में सर्वाधिक निपुण होते हैं। अतः
माता-पिता को चाहिए उनका परस्पर व्यवहार बच्चे के सामने सभ्य और सम्मानजनक हो। वे
एक दूसरे के प्रति शालीन भाषा का प्रयोग करें।
बच्चों के प्रति हमारा व्यवहार शिष्ट एवं
मर्यादित होना चाहिए। हमें उन्हें आत्म-सम्मान एवं आत्मविश्वास प्रदान करना चाहिए
ताकि भविष्य में वे सम्मानित एवं सफल जीवन जी सकें। बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण
में कुछ बातों की जानकारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जैसे-क्या हम उनकी
जिज्ञासावृत्ति का सम्मान करते हैं ? उनकी बौद्धिक क्षमताओं को
पहचानते हैं ? अथवा उन पर अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ लाद कर उनका
जीवन बोझिल बना देते हैं ?
उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान कर उन्हें पंगु
बना देते हैं अथवा बचपन से ही उन्हें स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा देते हैं ? बच्चों
के विचारों एवं उनके द्वारा दिए गए सुझावों को सम्मान देते हैं ? कभी-कभार
उनके साथ छुट्टी मनाते हैं अथवा अपनी व्यस्तता एवं आर्थिक तंगी का रोना रोते रहते
हैं ? अपने-अपने पूर्वग्रह उन पर थोपते हैं अथवा
उन्हें स्वंतत्र चिन्तन के लिए प्रेरित करते हैं ?
जीवन के
प्रति निषेधात्मक सोच को अपनाते हैं अथवा उनमें सकारात्मक दृष्टिकोण को विकसित
करते हैं ?
माता-पिता बच्चों की जिज्ञासावृत्ति का सदा
सम्मान करें। अक्सर ऐसा होता है, समयाभाव के कारण हम बच्चों की
समस्याओं, उनके प्रश्नों को न तो पूरे मन से सुन पाते
हैं और उनके कौतूहल को शान्त कर उन्हें संतुष्ट कर पाते हैं। कुछ भी पूछने पर उन्हें
डाँटकर उनकी निरीक्षण-क्षमता को दबा देने का अनजाने में अपराध कर जाते हैं। ऐसा
करके हम उनके भीतर की सृजानात्मक संभावनाओं को पल्लवित होने से पूर्व ही दमित कर
देते हैं। ऐसे बच्चे अक्सर वर्जित अभिव्यक्ति तलाशने लगते हैं।
मैंने परिचित परिवार के भारत सरकार के
उच्चाधिकारी पिता को अपने असाधारण प्रतिभाशाली बच्चे को सदा डाँटते ही पाया है।
देश-विदेश की हर जानकारी रखने वाले, विज्ञान, गणित
से लेकर भूगोल और मार्केटिंग तक के विषयों में गहरी पैट रखने वाले मिस्टर सिन्हा
की योग्यता और विद्वता अद्वितीय है, पर मजाल है कि वे अपने ज्ञान
सागर की दो बूँदे भी अपने बच्चों को देकर उन्हें तृप्त कर सकें। कुछ भी पूछने पर
उन्हें "निरा गधा" कहकर डाँट देते हैं। "बेवकूफ" या
"नालायक" कहकर उन्हें अपमानित कर उनका मजाक उड़ाने लगते हैं। उन्हें
प्रोत्साहित करना, उनकी अभिरुचियों को बढ़ावा देना
इनके कर्तव्य में नहीं आता। श्रीमती सिन्हा कहती
हैं, "केवल इतना होता तो भी ठीक था वे तो उल्टा
बच्चों की कमियाँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर उन्हें ही उजागर कर उनका मनोबल गिराते हैं। कक्षा
में प्रथम आने पर भी बच्चों को यही लगता हैं कि डैडी को तो कभी खुश होना नहीं है।
वे अक्सर अपने रिपोर्ट कार्ड पर साइन मुझसे ही करवा कर ले जाते हैं।" घर में
तो वे जरा-जरा-सी गलती पर उसे अपमानित दण्डित और लज्जित करते ही हैं पर पड़ोस और
रिश्तेदारी में भी बच्चे की निंदा और उसकी कमियों की चर्चा करना नहीं चूकते। अक्सर
उसकी तुलना दूसरे बच्चों से करते हुए उसे बुद्धिहीन सिद्ध करते हैं। ऐसा कदापि न
करें। बच्चे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा सबके सामने करें, और
उसकी कमियों की बात एकांत में उसके साथ करें। अन्यथा आप जाने-अनजाने बच्चे को
नकारात्मक दिशा की ओर प्रेरित करने की भयंकर भूल कर रहे हैं।
यह सब बच्चों के हित में नहीं है, माता-पिता
का कर्तव्य है कि वे बच्चे की हर संभव जिज्ञासा का शमन करें। क्रोध और खीझ में भर
कर नहीं, स्नेह और धैर्य के साथ उनकी हर शंका का
यथासंभव निवारण करें। उन्हें समय दें। उन्हें अभय प्रदान करें, ऐसा
न हो कि माता-पिता के उग्र रूप की परछाईं पकड़े बच्चे अपनी ही जिज्ञासाओं के
भँवर-जाल में डूब जाएँ।
अतः लाख कामों में मशगूल होते हुए भी उनसे इस
प्राकृतिक अधिकार को न छीनें, जो आपके सभी कर्तव्यो से ऊपर है।
उन्हें समय और स्नेह दें। उनके साथ बैठें, उनकी परेशानियों के विषय में
उनसे बात करते उनकी सहायता करें। बच्चे की कक्षा व गृहकार्य की कॉपी देखें। शिक्षक
के लिखे नोट पढ़ें। बच्चों के मित्र बनकर उनके साथ खुलकर बातचीत करें। उन्हें
डराएँ धमकाएँ नहीं वरन् सहायता का आश्वासन देकर उन्हें मानसिक उलझन से मुक्त करें।
किसी टैस्ट या परीक्षा में कम अंक पाने पर
उन्हें प्रताड़ित न करें। कारण की तह तक जाएँ,
न कि पीटकर, अपशब्द
बोलकर या डाँटकर उन्हें शारीरिक व मानसिक दुःख पहुँचाएँ। उनका मनोबल बढ़ाते हुए
उन्हें उत्साहवर्धक शब्द दें। उन्हें कहें कि वे प्रतिभाशाली हैं। पुरुषार्थी हैं।
एक उन्नत भविष्य उन्हें पुकार रहा है। उन्हें उनकी प्रतिभा से परिचित कराएँ।
बच्चों की मानसिक, बौद्धिक
एवं रचनात्मक क्षमताओं को पहचानें, अक्सर माता-पिता अपने बच्चों की
रुचियों एवं क्षमताओं से अनभिज्ञ रहकर उन पर अपनी इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं
और सपनों को थोप देने की भारी भूल कर बैठते हैं। स्वयं अगर डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, आई.ए.एस.
अफसर नहीं बन पाए तो अपनी अतृप्त लालसा को उनमें तलाशना शुरू कर देते हैं। अपनी
चाहत उन पर लाद कर उनकी बुद्धि को कुंठित करने की भूल कदापि न करें। उनके अपने
सपनें हैं जिन्हें वे पूरा करना चाहेंगे। प्रकृति ने हर व्यक्ति को एक-एक विशेष
योग्यता देकर भेजा है।
हम एक चित्रकार के हाथ में रंग और तूलिका थमाने
के स्थान पर उसे ईंट-पत्थर गारे-चूने में धकेल कर सिविल इंजीनियर बनाने की गलती न
करें। बचपन में ही उसकी रुचि, ऊर्जा को पहचानें। जबरदस्ती से
चुने गए विषय और कैरियर उसे पूरा जीवन संतोष नहीं दे पाते और वह व्यक्ति उसे ढोता
हुआ अपना जीवन बोझिल बना लेता है। उनकी क्षमता के अनुरूप उन्हें सही दिशा देना
हमारा कर्तव्य है, अन्यथा हम व्यक्ति के ही नहीं, समाज
के भी अपराधी माने जायेंगे और देश भी ऐसी प्रतिभाओं के विकास के लाभ से वंचित रह
जाएगा।
माता-पिता की महत्त्वाकांक्षा से जुड़ी एक दूसरी
समस्या है-आज के मध्यवर्गीय माता-पिता की सभ्यता की होड़ में अपने बच्चों को
पब्लिक स्कूल में ठेलने की प्रवृत्ति जो बाल चरित्र के स्वाभाविक विकास में बहुत
बड़ी बाधा है। घर में अंग्रेजी बोलने का वैसा वातावरण न होने के कारण बच्चे पर
इसकी विपरीत प्रतिक्रिया होती है। पब्लिक स्कूल में पढ़ने के उपरांत भी
आत्मविश्वास की कमी रहती है तथा उसमें अनेक कुंठाएँ भर जाती हैं। अतः अभिजात्य
वर्ग का अंग बनने की अपनी ललक के लिए बच्चों को बलि का बकरा न बनाएँ अन्यथा
प्रदर्शन प्रियता की होड़ में बच्चा गलत दिशा की ओर मुड़ सकता है, अथवा
आजीवन हीन मनोभावना का शिकार रहेगा।
बच्चों को अति लाड़-प्यार अथवा अतिरिक्त सुरक्षा
प्रदान न करें। अधिक संरक्षण उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व विकास में बाधक बनता है।
बच्चों को खेलने और गिरने दीजिए। गिरकर सँभलना अधिक महत्त्वपूर्ण है। बचपन में
दिनेश जब भी साइकिल चलाता, उसके पिता साथ ही रहते। एक बार
साइकिल चलाते वक्त वह गिर गया।
उसे काफी चोटें आईं और बायें हाथ की हड्डी भी
टूट गयी। पिता ने दुबारा साइकिल न चलाने का हुक्म दे दिया और साइकिल उठाकर किसी को
दे दी। बालमन में चोट का भय सदा के लिए बैठ गया। बचपन में साइकिल चलाना तक न सीख
पाने के कारण स्कूटर और कार चलाने की बात तो वह सोच भी नहीं पाता। इतना ही नहीं
किसी और के साथ स्कूटर या कार में बैठकर चलते समय भी दिनेश सदा तनावग्रस्त रहता
है। उसके अवचेतन मन में हर समय दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। अतः बालक को
अतिलालित कर कठिनाइयों से भागने वाला न बनाएँ अन्यथा वह पूरा जीवन पर-निर्भर एवं
दूसरों का मुखापेक्षी बना रहेगा।
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